________________
३५८
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
( २ ) अशरण भावना - मानव आत्मरक्षा के लिए अपने शरीर को समर्थ और बलवान बनाता है। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री आदि स्वजन एवं मित्रों से आपत्तिकाल में सहायता की आशा रखता है। सुख पूर्वक जीवन व्यतीत हो इसलिए दुःख उठा कर धन का सश्चय करता है । अपनी रक्षा के लिए कोई प्रयत्न उठा नहीं रखता परन्तु रोग और आतंक आने पर कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते । उत्तराध्ययन सूत्र के महानिग्रन्थीय अध्ययन में अनाथी मुनि मगधदेश वे अधिपति महाराज श्रेणिक को, जो अपने को सर्वविध समर्थ समझते थे और अनाथी मुनि के नाथ बन रहे थे, सम्बोधन करते हुए कहते हैं -
अपणा व अाहोऽसि, सेपिया ! मगहाहिबा । अपणा अणाहो संतो, कहं पाहो भविस्ससि ॥ अर्थात् - मगधदेश के अधिपति महाराज श्र ेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो । स्वयं अनाथ होकर तुम किस प्रकार मेरे नाथ हो सकोगे ?
मेरे हाथी घोड़े हैं, दास दासी हैं। मेरे नगर हैं, अन्तःपुर है । मनुष्य सम्बन्धी भोग मेरे अधीन हैं। मेरा शासन चलता है और मेरे पास ऐश्वर्य है। ऐसी सभी मनोरथों को पूरा करने वाली सम्पत्ति के होते हुए मैं अनाथ कैसे कहा जा सकता हूँ ? महाराज श्रेणिक के यह कहने पर अनाथ मुनि ने अनाथता (अशरणता) का स्वरूप इस तरह बताया
महाराज ! प्रसिद्ध कोशाम्बी नगरी में मेरे पिता रहते थे। उनके पास असीम धन सम्पत्ति थी । यौवन अवस्था में मेरी आँखों में प्रबल वेदना हो गई। सारे शरीर में आग लग गई हो ऐसा प्रचण्ड दाह होने लगा । वह वेदना परम दारुण थी । कमर, छाती और सिर सभी जगह दर्द होता था । इस रुग्णावस्था में वैद्यक शास्त्र में प्रवीण, जड़ी बूटी, मूल और मन्त्र विद्या में विशारद, शास्त्रविचक्षण