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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ५७ उन श्रात्माओं पर दया प्रकट करते हैं, जिनका शरीर क्षीण होता जाता है पर आशा तृष्णा बढ़ती रहती है। जिनका आयु वल घटता जाता है परन्तु पाप वुद्धि बढ़ती जाती है। जिनमें प्रतिदिन मोह प्रवल होता जाता है परन्तु आत्म कल्याण की भावना जागृत नहीं होती । वस्तुतः संसार में कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिस पर सदा के लिये विश्वास किया जा सके। यौवन जल बुबुद् की तरह क्षणिक है, लक्ष्मी सन्ध्या के बादलों की तरह अस्थिर है। स्त्री, परिवार अक्षिनिमेष की तरह क्षणस्थायी हैं। स्वामित्व स्वम तुल्य है। यों संसार के सभी पदार्थ विनश्वर हैं। संयोग वियोग के लिए है। अनित्य मावना पर उपाध्याय श्रीविनयविनयजी का एक श्लोक यहाँ उद्धृत किया जाता है :
आयुर्वायु तरचरङ्ग तरलं लग्नापदः संपदः । सर्वेऽपीन्द्रियगोचराश्च चटुलाःसन्ध्यानरागदिवत्।। मित्र स्त्री स्वजनादि संगम सुखं स्वमेन्द्रजालोपमं। ततिक वस्तु भवे भवेदिह मुदामालम्बनं यत्सताम् ॥
भावार्थ-आयु वायु से प्रेरित तरंगों की तरह चञ्चल है। सम्पत्ति के साथ आपत्तियाँ रही हुई हैं। सन्ध्याकालीन वादलों की लालिमा की तरह सभी इन्द्रियों के विषय अस्थिर हैं। मित्र, स्त्री और स्वजन वर्ग का सम्बन्ध स्वप्न एवं इन्द्रजाल की तरह क्षणस्थायी है। अव संसार में ऐसी कौन सी वस्तु है जो सज्जनों के प्रानन्द का आधार हो। जिसे प्राप्त करके चिरशान्ति मिल सके।
इस प्रकार अनित्यता का विचार करने से सभी वस्तुओं से मोह हट जाता है एवं तद्विषयक आसक्ति कम होती जाती है। जब वस्तु का स्वभाव ही विनाश है फिर उसके लिए शोक करने का कोई कारण नहीं है। मुरझाई हुई फूलों की माला का त्याग करने
खेद जैसी क्या बात है?