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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग २१ होने पर कहना कि यह फूज का स्पर्श नहीं किन्तु चन्दन का है। ___ संदिग्धग्राही और असंदिग्धग्राही की जगह कहीं कहीं उपग्राही और अनुलग्राही ऐसा पाठ है । इन का अर्थ राजवार्तिक में इस प्रकार किया गया है___ वक्ता कोई बात कहना चाहता है किन्तु अभी उसके मुंह से पूरा शब्द नहीं निकला। केवल शब्द का पहला एक अक्षर उच्चारण किया गया है । ऐसी अवस्था में वक्ता के अभिप्राय को जान कर यह कह देना कि तुम अमुक शब्द बोलने वाले हो, इस प्रकारका अवग्रह अनुनावग्रह कहलाता है, अथवा गाने के लिए तैयार हुए पुरुष के गाना शुरू करने के पहले ही उसके वीणा आदि के स्वर को सुन कर ही यह बतला देना कि यह पुरुष अमुक गाना गाने वाला है। इस प्रकार का अवग्रह अनुनावग्रह है। इससे विपरीत अर्थात् वक्ता के शब्दों को सुन कर होने वाला अवग्रह उसावग्रह है।
(११) ध्रुवग्राही-अवश्यम्भावी अर्थ को ग्रहण करने वाला अवग्रह ध्रुवग्राही है।
(१२) अध्रुवग्राही-कदाचिद्भावी अर्थ का ग्राहक अवग्रह अधु वग्राही है।
समान सामग्री होने पर भी किसी व्यक्ति को उस पदार्थ का अवश्य ज्ञान हो जाता है और किसी को क्षयोपशम की मन्दता के कारण कभी तो ज्ञान हो जाता है और कभी नहीं। ऐसा ज्ञान क्रमशः ध्रुवग्राही भवग्रह और अध्र वनाही अवग्रह कहलाता है।
उपरोक्ष बारह मेदों में से चार भेद अर्थात् बहु, अन्प, बहुविध और अल्पविध (एकविध) विषय की विविधता पर अवलम्बित हैं। शेष पाठ मेद क्षयोपशम की विविधता पर अवलम्वित है।
शङ्का- उपरोक्त बहु, अल्प-श्रादि पारह मेद तो पदार्थ की विशेषता का ज्ञान कराते हैं। अवग्रह का विषय तो सामान्य ज्ञान