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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला (५) क्षिप्रग्राही-पदार्थ का शीघ्र ज्ञान कराने वाला क्षिप्रणाही अवग्रह है।
(६) अधिप्रयाही-विलम्ब से ज्ञान कराने वाला अक्षिप्र-- ग्राही अवग्रह है । जन्दी या देरी से ज्ञान होना व्यक्ति के क्षयोपशम पर निर्भर है । बाह्य सारी सामग्री बरावर होने पर भी एक व्यक्ति क्षयोपशम की पटुता के कारण शीघ्र ज्ञान कर लेता है और दूसरा व्यक्ति क्षयोपशम की मंदता के कारण विलम्ब से ज्ञान करता है।
(७) निश्रितग्राही-- हेतु द्वारा निर्णीत निश्रित कहलाता है। जैसे-किसी व्यक्ति ने पहले जुही आदि के फूलों को देख रखा है और उसके शीत कोमल स्पर्श तथा सुगन्ध आदि का अनुभव कर रखा है उसके स्पर्श से होने वाला ज्ञान निश्रितग्राही है। .
(८) अनिश्रितग्राही हेतु द्वारा अनिर्णीत अनिश्रित कहलाता है। पहले अनुमान किए हुए पदार्थ का ज्ञान अनिश्रितग्राही है।
निश्रित प्रार अनिश्रित शब्दों का अर्थ ऊपर-बताया गया है। नन्दी सूत्र की टीका में भी यही अर्थ दिया गया है परन्तु वहाँ पर इन शब्दों का दूसरा अर्थ भी दिया हुआ है। वहाँ पर परधर्मों से मिश्रित ग्रहण को निश्रित अवग्रह और परधर्मों से अमिश्रित ग्रहण को भनिश्रित अवग्रह बताया गया है।
राजवार्तिक में बताया गया है कि सम्पूर्ण एवं स्पष्ट रीति से उच्चारण नहीं किये गए शब्दों का ग्रहण अनिःसृतावग्रह है और सम्पूर्ण एवं स्पष्ट रीति से उच्चारण किये गये शब्दों का ग्रहण निस्तावग्राही है।
(8)संदिग्धग्राही--अनिश्चित अर्थ को ग्रहण करने वाला अबप्रह संदिग्धग्राही है।
(१०) असंदिग्धग्राही निश्चित अर्थ को ग्रहण करने वाला शवग्रह असंदिग्धग्राही कहलाता है, जैसे किसी पदार्थ का स्पर्श