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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग २८५ इसके प्रथम भाग में बोल नं १२८ (क) पृष्ठ ११ (तीन गुणव्रत), बोल १८६ पृष्ठ १४०(चार शिक्षा व्रत) और बोल ३०० पृष्ठ २८८ (पॉच अणुव्रत) में दिया जो चुका है। यहॉ आगमसार के अनुसार हो उनका संक्षिप्त स्वरूप दिया गया है। ७६४ (क) श्रावक के बारह व्रतों की संक्षिप्त टीप
___ इसी पुस्तक के परिशिष्ट पृष्ठ ४६३ पर है। ७६५-भिक्खु पडिमा बारह साधु के अभिग्रह विशेष को मिक्खुपडिमा कहते हैं। वे वारह हैंएक मास से लेकर सात मास तक सात पडिमाएं हैं। पाटवी, नवी
और दसवीं पडिमाओं में प्रत्येक सात दिन रात्रि की होती है। ग्यारहवीं एक अहोरात्र की और बारहवीं केवल एक रात्रि की होती है।
पडिमाधारी मुनि अपने शारीरिक संस्कारों को तथा शरीर के ममत्व भाव को छोड़ देता है ओर दैन्य भाव न दिखाते हुए देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करता है । वह अज्ञात कुल से और थोड़े परिमाण से गोचरी लेता है। गृहस्थ के घर पर मनुष्य, पशु, श्रमण,ब्राह्मण, भिखारी आदि भिक्षार्थ खडे हों तो उसके घर नहीं जाता क्योंकि उन दान में अन्तराय पड़ती है। अतः उनके चले जाने पर जाता है।
(१) पहली पडिमाधारी साधु को एक दति अन्नकी और एक दत्ति पानी की लेना कल्पता है। साधु के पात्र में दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और पानी की जब तक धारा अखएड बनी रहे उसका नाम दत्ति है । धाग खण्डित होने पर दचि की समाप्ति हो जाती है। जहाँ एक व्यक्ति के लिए भोजन बना हो वही से मिक्षा लेना चाहिए। किन्तु जहाँ दो, तीन, चार, पॉच या अधिक व्यक्तियों के लिए भोजन बना हो वहाँ से भिक्षा न लेनी चाहिए। इसी प्रकार गर्भवती और छोटे बच्चे वाली स्त्री के लिए बना हुआ भोजन या शे स्त्री बच्चे को दूध पिला रहो हो वह बच्चे को अलग रख कर.