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श्री खेठिया जैन ग्रन्थमाल होता है उनमें अपनापन रखना निश्चय अनर्थदण्ड है। इन्हें श्रात्मा से, मिन्न समझ कर इनसे एवं इनके कारणों से श्रात्मा को बचाना निश्चय अनर्थदण्ड विरमण, व्रत है।
(8) सामायिक व्रत-मन वचन और काया को प्रारम्भ से हटाना और आरम्म न हो इस प्रकार उनकी प्रवृत्ति करना व्यवहार सामायिक है। जीव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों का विचार करना और यात्मगुणों की अपेक्षा सर्वजीवों को एक सरीखा समझ कर उनमें समता-भाव धारण करना निश्चय सामायिक व्रत है।
(१०) देशावकाशिक व्रत-मन, वचन और काया के योगों को स्थिर करना और एक जगह बैठ कर धर्मध्यान करना मर्यादित दिशाओं से बाहर पाश्रवों का सेवन न करना । व्यवहार देशावकाशिक व्रत है। श्रुतज्ञान द्वाराषः द्रव्य का स्वरूप जान कर पाँचद्रव्यों का त्याग करना और ज्ञान स्वरूप जीव द्रव्य का ध्यान करना, उसी में रमण करना निश्चय देशावकाशिक व्रत है।
(११) पौषध व्रत-चार पहर से लेकर आठ पहर तक सावध व्यापार का त्याग कर समता परिणाम को धारण करना और स्वाध्याय तथा ध्यान में प्रवृचि करना व्यवहार पौपध व्रत है। अपनी श्रात्मा को ज्ञान ध्यान द्वारा पुष्ट करना निश्चय पौषध व्रत है।
(१२) अतिथि विभाग त-हमेशा और विशेष कर पौषध के पारणे के दिन पंच महाव्रतधारी साधु एवं स्वधर्मी बन्धु को यथाशक्ति भोजनादि देना व्यवहार अतिथिसंविभाग व्रत है। अपनी प्रात्मा एवं शिष्य को ज्ञान दान देना अर्थात् स्वयं पढ़ना, शिष्य को पढ़ाना तथा सिद्धान्त का श्रवण करना और कराना निश्चय अतिथिसंविभाग व्रत है। (देवचन्दबी कुत आगमसार)
नोट-प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार का लक्ष्य निश्चय व्रतों का स्वरूप बताना ही रहा है। यही कारण है कि उन्होंने व्यवहार व्रत बहुत स्थूल रूप में दिये हैं। व्यवहार व्रतों का स्वरूप