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श्री जैन सिद्धान्त घोह संग्रह, चौथा भाग
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समझ कर इनमें उदासीन भाव रखना और सिद्धावस्था को उपा. देय समझना निश्चय दिशा परिमाण व्रत है।
(७)उपभोग परिभोग परिमाण व्रत - एक बार और अनेक पार भोगी जाने वाली वस्तु क्रमशः उपभोग और परिमोग कही जाती है। भोजन आदि उपभोग है और वस्त्र धामरण श्रादि परिमोग हैं। उपभोग परिभोग की वस्तुओं की इच्छानुसार मर्यादा रखना और मर्यादा उपरान्त सभी वस्तुओं के उपभोग परिभोग का त्याग करना व्यवहार उपभोग परिमोग परिमाण व्रत है।
व्यवहार से कर्मों का कर्ता और भोला जीव है परन्तु निश्चय में फचर्चा और भोजा कम ही हैं। अनादि काल से यह आत्मा प्रज्ञान.
शपर-भावों को भोग रहा है, उन्हें ग्रहण कर रहा है एवं उनकी रक्षा कर रहा है और इसी से उसकी कतूल शक्ति भी विकृत हो गई है। इसी विकृति के कारण.वह पर-भावों में पानन्द मानता हुधा पाठ कर्मों का कर्चा भी चन गया है। वास्तव में वह अपने स्वभाव का ही कर्चा है किन्तु उपकरणों (जिनके द्वारा वह वास्तविक स्वक्रिया करता है। के श्रावृत्त होने के कारण वह स्वकार्य न करके विमावों को करने में लगा हुआ है। जीव का उपयोग गुण प्रात्मा से अभिन्न होते हुए भी कर्मवश वह कथञ्चित् भिन्न हो रहा है । प्रात्मा ही निश्चय से ज्ञानादि स्वगुणों का कर्जा और भोक्ता है । इस प्रकार के श्रात्मस्वरूपानुगामी परिणाम को निश्चय उपभोग परिमोग परिमाण वत कहते हैं।
() अनर्थदण्ड विरमण बत-निष्प्रयोजन अपनी आत्मा को पाप आरम्भ में लगाना अनर्थदण्ड है। व्यर्थ ही दूसरों के लिए प्रारम्भ भादि करने की आज्ञा देना आदि व्यवहार अनर्थदण्ड है। इसका त्याग करना व्यवहार अनर्थएड विरमण व्रत है । मिथ्यात्व, भविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जिन शुभाशुभ कर्मों का बंध