________________
-
-
-
-
श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग ५७ जैसे सुख को शुभ, कल्याण, शिव इत्यादि नामों से कहा जाता है। वैसे ही पाप भी दूसरे नामों से पुकारा जाता है।
'पुण्य से ही सुख और दुःख दोनों हो जाएंगे, इस लिए पाप को मानने की कोई आवश्यकता नहीं। यह पन भी ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्य की कमी से ही दुःख नहीं बढ़ सकता । ऐसा मानने पर मुक्त जीवों को सब से अधिक दुःख होना चाहिए । दूसरी बात यह है, जैसे सुख अपने अनुकूल कर्मों के प्रकर्ष (अधिकता) से पैदा होता है उसी प्रकार दुःख की उत्पत्ति भी अपने अनुकूल कर्मों के प्रकर्ष से माननी चाहिए। यदि पुण्य के अपकर्ष मात्र से दुःख की उत्पत्ति मानी जाय तो अभीष्ट वस्तु की प्राति न होने पर ही दुःख होना चाहिए, किसी अनिष्ट की प्राप्ति पर दुःख न होना चाहिए। पुण्य की कमी से सुख की कमी हो सकती है दुःख की उत्पत्ति न होनी चाहिए। जैसे चक्रवर्ती श्रादि का शरीर पुण्य प्रकृति के उदय से होता है इसी प्रकार दुःखी प्राणी का शरीर पाप प्रकृति के उदय से होता है । इत्यादि युनियों से पुण्य से अलग पाप को मानना आवश्यक है।
इन्हीं युनियों को दूसरे पक्ष में लगाने पर पाप से अलग पुण्य की सिद्धि हो जाती है । इस लिए केवल पाप को मानने वाला दुसरा पक्ष भी ठीक नहीं है। - मन, वचन और कायारूप योगों की प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है। इनकी प्रवृत्तिदोतरह से होती है किसी समय शुभ, किसी समय अशुभा दोनों तरह की प्रवृत्तियाँ एक साथ नहीं हो सकतीं। शुभ प्राचि से शुभवन्ध होता है और अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ। शुभबन्ध को पुण्य तथा अशुभवन्ध को पाप कहा जाता है।
प्रश्न- 'एक समय में शुभ या अशुभ एक ही क्रिया होती है' यह कहना ठीक नहीं है। जो मनुष्य बिना विधि दान दे रहा है,