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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
उपदेश दे रहा है, या मन में सोच रहा है उसको एक ही समय में शुभ और अशुभ दोनों क्रियाएं होती हैं।
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उत्तर- व्यवहार जय की अपेक्षा ऐसे स्थान पर शुभाशुभ क्रिया मानी जा सकती है, किन्तु निश्चय नय की अपेक्षा वहाँ, एक समय में एक ही योग रहता है। योगों का शुभ या अशुभ होना परिणाम या भावों पर निर्भर है। बुरे भाव होने पर योग अशुभ हो जाता है और अच्छे भाव होने पर शुभ । ये दोनों भाव एक समय में एक साथ नहीं रह सकते, इस लिये शुभाशुभ योग भी कोई नहीं है। शास्त्र में भानयोग ही विशेष माना जाता है, द्रव्ययोग नहीं । जैसे कि मन में शुभ भाव आने से शुभमनोयोग होता है और अशुभ भाव आने से अशुभ मनोयोग कहा जाता है । वास्तव में मनोयोग शुभाशुभ नहीं है, किन्तु भावयोग के सम्बन्ध से द्रव्यमनोयोग शुभाशुभ हो जाता है। इसी लिए ध्यान के चार भेद बताए गए हैं। इन में से दो शुभ हैं और दो अशुभ | इसी प्रकार लेश्याओं में भी अन्तिम तीन शुभ हैं और पहली तीन अशुभ | ध्यान और लेश्या के शुभाशुभ होने से योग भी शुभाशुभ होता है । इस प्रकार पुण्य और पाप दोनों पृथक् पृथक् सिद्ध हो। जाते हैं। शुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त शुभ फल देने बाली कर्मप्रकृतियों को पुण्य कहते हैं । अशुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त तथा अशुभ फल देने वाली कर्मप्रकृतियों को पाप कहते हैं। शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करता हुआ जीव पुण्य या पाप के योग्य कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है । कर्म वर्गणा के पुद्गल न तो मेरु की तरह अतिस्थूल हैं और न परमाणु की तरह सूक्ष्म । जिस स्थान में जीव रहता है उसी स्थान में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करता है, दूसरे स्थान में रहे हुए पुद्गलों को नहीं । जैसे तेल की मालिश किए शरीर में धूल आकर चिपक जाती है उसी तरह रागद्वेष के कारण कर्मपुद्गल जीव से चिपक
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