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श्री जैन सिद्धान्त बोलसंग्रह, चौथा भाग । ७५ (२) उ०—नाव पर बैठने और नदी आदि पार करने की विधि । (३) ३०- विहार करने की विधि।
तेरहवाँ अध्ययन-भाषाजात । भाषा कितने प्रकार की है
तथा मुनि को कैसी भाषा बोलनी चाहिए । इसमें दोउद्देशे हैं(२) उ०-भाषा के सोलह वचन तथा चार प्रकार। (२) उ०-मुनि को कैसे बोलना चाहिए।
चौदहवाँ अध्ययन-वस्त्र पणा । इस में दो उद्देशे हैं(२)उ०-मुनि को कैसे और किस प्रकार के वस्त्र लेने चाहिए।' (२) उ०-वस्त्र सम्बन्धी आज्ञाएं। ___ पन्द्रहवाँ अध्ययन-पात्रेपणा । इसके भी दो उद्देशे हैं(१) उ०-पात्र कैसें और किस प्रकार लेने चाहिए । (२) उ०-पात्र विषयक आज्ञाएं। .
सोलहवाँअध्ययन-अवग्रह प्रतिमा। इसमें भी दोउद्देशे हैं(१) उ० –साधु के योग्य उपाश्रय देखना। (२) उ०-साधु के योग्य उपाश्रय देखने की विधि ।
दूसरी चूलिका इसके सभी अध्ययनों में एक एक उद्देशा है। सत्रहवाँ अध्ययन- स्थान । खड़े रहने के स्थान की विधि ।
अठारहवाँ अध्ययन-निशीथिका । अभ्यास करने के लिए कैसा स्थान अवलोकन करना चाहिए ।
उन्नीसवाँ अध्ययन-उच्चारपासवण । स्थंडिल के लिए कैसास्थान अवलोकन करना चाहिए। बीसवाँ अध्ययन- शब्द । मुनि को शब्द में मोहित नहीं होना
चाहिए।
इक्कीसवॉ अध्ययन-रूप । सुन्दर रूप देख कर मोहित न होना चाहिए।