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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३४१ प्राप्ति के बाद पतित होकर दुवारा उत्तरोत्तर गुणस्थानों को प्राप्त करने वाले की अपेक्षा से । तीसरा भंग इन प्रकृतियों में नहीं होता।
अघ्र ववन्धिनी और अध्र वोदया प्रकृतियों में चौथा भंगही होता है क्योंकि ऊपर बताई ७३ अध्र ववन्धिनी प्रकृतियाँ कभी बंधती है, कभी नहीं। इस लिए इनका नन्ध सादि सान्त है । इसी प्रकार इनका उदय भी सादि सान्त है। बाकी तीन मंगअघ्र ववन्धिनी और अध्र वोदया प्रकृतियों में नहीं होते।
(३) ५ वोदया प्रकृतियॉ-विच्छेद होने से पहले जो प्रकृतियाँ सदा उदय में रहती हैं वे ध्रुवोदया कही जाती हैं । ऐसी प्रकृतियाँ २७ हैं-निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तेजस, कार्मण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श। ज्ञानावरणीय की ५ । दर्शनावरणीय की ४ । अन्तराय की ५ और मिथ्यात्वाये प्रकृतियॉविच्छेद से पहले सदा उदय में रहती हैं।
(४) अध्र वोदया प्रकृतिया- विच्छेद न होने पर भी जिन प्रकृतियों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल,माव और भव इन पाँचों बातों की अपेक्षा रखता है अर्थात् इन सब के मिलने पर ही जिन प्रकृतियों का उदय हो वे अध्रु बोदया कहलाती हैं । अध्रुवोदया प्रकृतियाँ ६५ है- अघ्र ववन्धिनी ७३ प्रकृतियों पहले गिनाई जा चुकी हैं। उनमें से स्थिर, अस्थिर, शुभ और अशुभ ये चार कम हो जाती हैं। वाकीदप्रकृतियॉ अधं वोदया है। ध्रुवन्धिनी प्रकृतियों में मोहनीय. कर्म की १६ प्रकृतियॉगिनाई गई हैं। उन में मिथ्यात्व को छोड़ कर शेष १८ अध्रौंदया है । ६६ और १८ मिलकर ८७ हुई । इन में निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलामचला, स्त्यानगृद्धि, उपघात नाम, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन आठ को मिलाने से १५ प्रकृतियॉहो जाती है। ये प्रकृतियाँसदाउदय में नहीं रहतीं। दूसरेनिमित्तों को प्राप्त करके ही उदय में आती हैं,इसी लिए अघ्र गो-,