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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
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मोदन मी न करना चाहिए । यथाकल्प साधु को सब जीवों के हित साधन और रक्षा के लिए सदा उद्यत रहना चाहिए ।
( ५ ) अत्यन्त गम्भीर चेता- संयम धर्म का पालन करते हुए साधु को अनेक प्रकार से अनुकूल और प्रतिकूल परीषह उत्पन्न होते हैं। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में हर्ष विषाद न करते हुए चित में किसी प्रकार का विकार पैदा न होने देना साधु का परम धर्म है । साधु को अत्यन्त गम्भीर चित्त वाला और शान्त 1 होना चाहिए ।
(६) प्रधान परिणति - सांसारिक अन्य सब कंझटों को छोड़ कर श्रात्मभाव में लीन रहना साधु के लिए प्रशस्त कार्य है । (७) विधुतमोह - मोह एवं राग भाव से निवृत होकर साधु को संयम मार्ग में दत्तचित्त रहना चाहिए ।
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(८) परम सत्त्वार्थ कर्चा - साधु को मोक्ष प्राप्ति के साधनभूत सम्यक्त्व में दृढ़ श्रद्धा वाला होना चाहिए ।
(६) सामायिकवान् - साधु में मध्यस्थभाव का होना परमावश्यक है । शत्रु और मित्र, स्वजन या परजन सभी पर उसे समभाव रखना चाहिए । समभाव का होना ही सामायिक है । साधु के यावजीव की सामायिक होती है। इस लिए समता भाव के धारण करने से ही साधु की सामायिक सार्थक होती है ।
(१०) विशुद्धाशय - जिस प्रकार चन्द्रमा का प्रकाश स्वच्छ और निर्मल होता है, उसी प्रकार साधु का आशय विशुद्ध एवं निर्मल होना चाहिए ।
(११) यथोचित प्रवृत्ति - साधु को अवसरज्ञ होना चाहिए अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देख कर प्रवृत्ति करनी चाहिए। इसके विपरीत प्रवृत्ति करने से संयम धर्म में बाधा पहुँचती है और लोक में निन्दा भी होती है।