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श्री सेठिया जैन प्रन्माला
(१२) सात्मीभूत शुभ योग-जिस प्रकार लोहे के गोले को अग्नि में तपाने पर अग्नि उसके अन्दर प्रवेश कर जाती है और लोहे के साथ अनि एकरूप हो जाती है, उसी तरह साधु को शुभ योगों के साथ एकरूप हो जाना चाहिए। साधु की प्रवृत्ति सदा शुभ योगों में ही होनी चाहिए। उपरोक्त वारह गुण सम्पन्न साधु प्रशस्त गिना जाता है
(धर्मबिन्दु प्रकरण, सूत्र ३६६) ८०७-कायोत्सर्ग के आगार बारह
सांसारिक प्राणियों को गमनागमनादि क्रियाओं से पाप का बन्ध होता है, इसी कारण श्रात्मा मलिन हो जाती है। उसकी शुद्धि के लिए तथा परिणामों को पूर्ण शुद्ध और अधिक निर्मल बनाने के लिए प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। परिणामों की विशुद्धि के सिवाय पात्मशुद्धि हो नहीं सकती। परिणामों की विशुद्धता के लिये माया (कपट), निदान (फल कामना) और मिथ्यात्व (कदाग्रह) रूप तीन शल्यों का त्याग करना जरूरी है। शन्यों का त्याग और अन्य सब पापकर्मों का नाश कायोत्सर्ग से ही हो सकता है। शरीर के ममत्व को त्याग कर निश्चित समय के लिए निश्चलता पूर्वक ध्यान करना काउसग्ग (कायोत्सर्ग) कहलाता है। इसके बारह आगार हैं
(१) ऊससिएणं-उच्छास (ऊंचा श्वास) लेना। (२)नीससिएणं-निश्वास अर्थात् श्वास को बाहर निकालना। (३) खासिएणं-खांसी आना। (४)छीएणं-छींक आना। (५) जमाइएगां-जमुहाई (उवासी) श्रीना। (६) उड्डएणं-डकार पाना । (७) वायनिसग्गेणं-अपान वायु (अधो वायु) का सरना।