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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग (८) भमलिए- चक्कर आना अर्थात् सिर का घूमना । (8) पित्तमुच्छाए-पित्त के विकार से मूर्छा आना। (१०) सुहुमेहि अङ्ग संचालेहि-शरीर का सूक्ष्म हलन चलन । (११) सुहुमेहि खेल संचालेहि--कफ, थूक आदि का सूक्ष्म संचार होना या नाक का झरना। (१२) सुहुमेहिं दिहि संचालेहि-दृष्टि का सूक्ष्म संचलन ।
उपरोक्त बारह प्रागार तथा इनके सदृश अन्य क्रियाएं जो स्वयमेव हुआ करती हैं और जिन क्रियाओं के रोकने से शरीर में रोगादि होने की तथा अशान्ति पैदा होने की सम्भावना रहती है। उनके
होते रहने पर भी कायोत्सर्गभन (अखण्डित) रहता है। इनके . सिवाय दूसरी क्रियाएं जो आप हो,आप नहीं होती, जिनका रोकना
अपनी इच्छा के अधीन है उन क्रियाओं को कायोत्सर्ग के समय नहीं करना चाहिए अर्थात् अपवाद भूत क्रियाओं के सिवाय अन्य कोई भी क्रिया न करनी चाहिए।
इन चारह आगारों के वाद आदि शब्द दिया है। आदि शब्द से नीचे लिखे चार आगार हरिभद्रीयावश्यक कायोत्सर्गाध्ययन गाथा १५१६ में और दिये गये हैं
अगणीभोछिदिल्लवबोहिय खोभाइ दीहडक्कोवा। श्रागारहिं अभग्गो उस्सग्गो एवमाईहिं॥ अर्थात् -(१) आग आदि के उपद्रव से दूसरी जगह जाना (२) बिल्ली चूहे आदि का उपद्रव या किसी पञ्चेन्द्रिय जीव के छेदन भेदन होने के कारण अन्य स्थान में जाना (३) अस्मात् डकैती पड़ने या राजा आदि के सताने से स्थान वदलना (४) सिह आदि के भय से, साँप, विच्छू आदि विले जन्तुओं के डंक से या दिवाल शादि गिर पड़ने की शङ्का से दूसरे स्थान पर जाना।
कायोत्सर्ग करने के समय उपरोक्त श्रागार इसलिये रखे