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श्री सेठिया जैन पन्थमाला प्रकृतियाँ तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव के उद्वर्तना प्रयोग के समय उदय में नहीं रहती। बाकी जीवों के रहती हैं। जो जीत्र प्रस नहीं है उसके क्रियैकादशक का बन्ध नहीं होता। त्रस अवस्था में इन प्रकृतियों को बाँध कर मृत्यु हो जाने पर जो जीव स्थावर रूप से उत्पन्न होता है उसके भी स्थिति पूरी हो जाने से इनका क्षय हो जाता है। इस लिए स्थावर जीव के इन ११ प्रकृतियों की सत्ता नहीं होती । सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर भी तीर्थवर नाम कर्म बहुत थोड़े महापुरुषों को होता है । स्थावर जीवों के देव और नरकायु, अहमिन्द्रों के अर्थात् नव अवेयक से लेकर ऊपर के देवों के . तिर्यश्च श्रायु तथा तेजस्काय, वायुकाय और सातवीं नरक के जीवों के मनुष्यायु का बन्ध नहीं होता । इस लिए ये प्रकृतियाँ उन के सचा रूप से भी नहीं रहतीं। दूसरों के होने की भजना है। संयम होने पर भी श्राहारकसमक किसी जीव के बन्ध होने पर ही सत्ता । में होता है, बिना पन्ध वाले जीवों के नहीं होता । उच्च गोत्र का बन्ध त्रस जीवों के ही होता है। वन्ध हो जाने के बाद स्थावरपना प्राप्त होने पर भी स्थिति पूरी होने से उसका क्षय हो जाता है । इस प्रकार वह सत्ता में नहीं रहता। तेजस्काय और वायुकाय जीवों के उद्वर्तना प्रयोग में भी नहीं रहता । इस प्रकार ये सभी प्रकृतियों अध्रुव अर्थात् अनिश्चित सत्ता वाली हैं । गुणस्थानों में ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों का विवरण नीचे लिखे अनुसार है-पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व मोहनीय नियम से सत्ता में रहती है। चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मजना है। औपशमिक सम्यक्त्व वालों के मिथ्यात्व प्रकृति सत्ता में रहती है और क्षायिक सम्यक्त्व वालों के नहीं। दूसरे सास्वादन गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय नियम से रहती है। दूसरे को छोड़ कर ग्यारहवें तक दस गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की भजना है।