SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 446
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० श्री सेठया जैम प्रन्थमाला नींद आ गई। रात्रि के अन्तिम पहर में अश्वशाला रक्षक ने सार्थवाह को लक्ष्य करके एक आर्या श्लोक पढ़ापालयति प्रतिपन्नान् विषमदशामागतोऽपि सन्नाथः । खण्डीभूतोऽपि शशी कुमुदानि विकाशयत्यथवा ॥ अर्थात-सजन मालिक स्वयं बुरी दशा में होने पर भी अपने श्राश्रित व्यक्तियों का पालन करता है । चन्द्रमा खण्डित होने पर भी कुमुदों को अवश्य विकसित करता है। इस श्लोक को सुन कर सार्थपति जग गया। वह सोचने लगाइस श्लोक में स्तुति के बहाने से मुझे उलाहना दिया गया है। इस काफिले में सब से अधिक दुखी कौन है ? यह सोचते हुए उस . के मन में धर्मघोष आचार्य का ध्यान आया। उसने अपने आप कहा-इतने दिन तक मैंने उन महाव्रतधारियों का नाम भी नहीं लिया, सेवा करना तो दूर रहा । कन्द, मूल, फल वगैरह वस्तुएं उन के लिए अभक्ष्य हैं। इस लिए मेरे ख्याल में उन्हीं को सब से अधिक दुःख होगा। प्रमाद रूपी नशा कितना भयंकर है। यह -पुरुष को सदा बुरी चिन्ताओं की ओर प्रवृत करता है। अच्छे विषयों की ओर से बुद्धि को हटाता है । इस लिए अभी जाकर मैं साधुजी की उपासना करता हूँ। वह इस प्रकार का विचार कर रहा था, इतने में पहरेदार के मुह से एक दूसरा श्लोक सुनासंसारेऽत्र मनुष्यो घटनं केनापि तेन सह लभते। देवस्यानभिलषतोऽपि यदशात् पतति सुखराशौ ।। __ अर्थात्-संसार में मनुष्य अचानक ऐसी वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है जिन के कारण वह प्रकृति के प्रतिकूल होने पर भी सुखों को प्राप्त कर लेता है। इस श्लोक को सुन कर धना सार्थवाह को सन्तोष हुआ, क्योंकि इस' में सूचित किया गया था कि बुरा समय होने पर भी मुनियों
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy