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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ४४६ गरमी के बाद संसार को शान्ति देने के लिए वर्षा समय आ • गया। बादल आकाश में छा गए। विजलियाँ चमकने लगी। भयं
कर गर्जना होने लगी। मानो बादल गरमी को तर्जना दे रहे हों। - ऐसे समय में रास्ते चलना बड़ा कठिन था। सभी मार्ग पानी
और कीचड़ से भर गए थे। यह सोच कर धन्ना सार्थवाह ने दूसरे लोगों से पूछ कर वहीं पड़ाव डाल दिया। सामान का बचाव करने के लिए रस्सियों से मच बना कर काफिले के सभी लोग वर्षाकाल बिताने के लिए वहीं ठहर गए । धन्ना सार्थवाह के साथ चलने वाले बहुत थे। मार्ग लम्बा होने से भी बहुत दिन लग गए तथा दान भी बहुत दिया जाता था। इन सब कारणों से रास्ते में खाने पीने की सामग्री कम हो गई। सभी लोग पश्चात्ताप करने लगे। भूख से पीड़ित होकर वे कन्द, मूल तथा फल खाने लगे।
रात को सार्थवाह जव आराम कर रहा था तो मणिभद्र ने कहा- स्वामिन् ! खाद्य सामग्री के कम हो जाने से सभी काफिले वाले कन्द, मूल और फल खाने लगे हैं। लजा, पुरुषार्थ और मर्यादा को छोड़ कर सभी तापसों की तरह रहने लगे हैं । कहा भी है
मानं मुञ्चति गौरवं परिहरत्यायाति दैन्यात्मताम् । लजामुत्सृजति अयत्यकरुणां नीचत्वमालम्बते॥ भार्यावन्धुसुहृत्सुतेष्वपकृतीनानाविधाश्चेष्टते। :. किं किंयन्न करोति निन्दितमपिप्राणीनुधापीडितः।।
ऐसा कौनसा निन्दित कार्य है जिसे तुधापीडित प्राणी नहीं करता । वह अपने मान को छोड़ देता है, गौरव का त्याग कर देता है, दीनता को धार लेता है, लजा को तिलाञ्जलि दे देता है, करता और नीचता को अपना लेता है। स्त्री, बन्धु, मित्र और . पुत्र आदि के साथ भी विविध प्रकार के बुरे व्यवहार करता है ।
यह सुन कर धन्ना सार्थवाह चिन्ता करने लगा। इतने में उसे