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श्री सेठया जेन प्रथमाला वही आहार कन्पनीय होता है जिसे वे न स्वयं बनाते हैं, न दूसरे के द्वारा बनवाते हैं और जो न उनके निमित से बना होता है। गृहस्थ जिस आहार को अपने लिए बनाता है उसी को मधुकरी वृत्ति से दोष टाल कर लेना साधु को कल्पता है। ___ उसी समय किसी ने पके हुए सुगन्धित आन फलों से भरा हुआ थाल सार्थपति को उपहार स्वरूप दिया । उसे देख कर प्रसन्न होते हुए सार्थपति ने आचार्य से कहा- भगवान ! इन फलों को ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह कीजिए । आचार्य ने कहाअभी मैंने कहा था कि जिस आहार को गृहस्थ अपने लिए बनाता है वही हमें कल्पता है। कन्द, मूल, फल आदि जब तक शस्त्र प्रयोग द्वारा अचित्त नहीं होते तब तक हमारे लिए उन्हें छूना भी नहीं कल्पता । खाना तो कैसे कल्प सकता है ?
यह सुन कर सार्थवाह ने कहा-आप लोगों का व्रत बहुत दुष्कर है अथवा मोक्ष का शाश्वत सुख चिना कट के प्राप्त नहीं हो सकता। यद्यपि आपका हमारे से बहुत थोड़ा प्रयोजन है फिर भी मार्ग में यदि कोई बात हो तो अवश्य आज्ञा दीजिएगा। ऐसा कह कर सार्थवाह ने प्रणाम करके, उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए धर्मघोपप्राचार्य को विदा किया। प्राचार्य अपने स्थान पर चले आए। स्वाध्याय और अध्ययन में लीन रहते हुए एक रात वहाँ ठहर कर प्रातः काल होते ही सार्थवाह के साथ रवाना हुए।
उसी समय ग्रीष्म ऋतु आ गई । गरमी बढ़ने लगी । भूमि तपने लगी। तालाब सूख गए । प्यास अधिक लगने लगी। प्रकृति की सरसता नष्ट हो गई। इस प्रकार की गरमी में भी सतत प्रयाण करता हुआ सार्थ(काफिला) विविध प्रकार के भयङ्कर जंगली पशुओ से भरी भयानक अटवी में पहुँच गया। ताल, तमाल, हिन्ताल आदि विविध प्रकार के वृक्ष वहाँ इतने घने थे कि सूर्य भी दिखाई न देता था।