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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ४४७ धना सार्थवाह के साथ चलने को तैयार हो गए।
धर्मघोप प्राचार्य ने भी यह घोषणा सुनी । धन्ना सार्थवाह के सभी कार्यों को सोच कर कार्यरूप में परिणत करने वाला मणिभद्र नाम का प्रधान मुनीम था । धर्मघोष प्राचार्य ने उसके पास दो साधुओं को मेजा। अपने घर में आए हुए मुनियों को देख कर मणिभद्र ने विधि पूर्वक वन्दना की और विनय पूर्वक आने का कारण पूछा । साधुनों ने कहा-धन्ना सार्थवाह का वसन्तपुर गमन सुन कर प्राचार्य महाराज ने हमें आपके पास भेजा है। । यदि उसे स्वीकार हो तो वे भी साथ में जाना चाहते हैं। मणिभद्र ने उत्तर दिया-सार्थवाह का अहोभाग्य है अगर प्राचार्य महाराज साथ में पधारें, किन्तु जाने के समय प्राचार्य महाराज स्वयं
आकर सार्थवाह को कह दें। यह कह कर नमस्कार पूर्वक उसने मुनियों को विदा किया । साघुओं ने जाकर सारी वात प्राचार्य को कही। उसे स्वीकार करके वे धर्माचरण में अपने दिन विताने लगे।
एक दिन अच्छे मूहुर्त तथा शुम तिथि, करण, योग और नक्षत्र में धन्ना सार्थवाह प्रस्थान करके नगर से बाहर कुछ दूर जाकर ठहर गया।
उसी समय धर्मघोष आचार्य भी बहुत से मुनियों के साथ सार्थवाह को दर्शन देने के लिए वहाँ आए । वन्दना नमस्कार तथा उचित सत्कार करके सार्थवाह ने उनसे पूछा-क्या आप लोग भी मेरे साथ चलेंगे ? आचार्य ने उत्तर दिया-यदि आप की अनुमति हो तो हमारी इच्छा है। उसी समय सार्थवाह ने रसोइए को बुलाया और कहा प्रशन पान आदि जैसा आहार इन मुनिवरों को अभीष्ट हो तथा कल्पता हो उस समय विना संकोच इन्हें वैसा ही आहार देना।
यह सुन कर प्राचार्य ने कहा-सार्थपते । इस प्रकार हमारे निमित्त , तैयार किया हुआ आहार हमें नहीं कल्पता। साधुओं के लिए