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श्री जैन सिद्धान्त बोल समह, चौथा भाग
को किसी प्रकार का कष्ट नहीं है ! इतने में कालनिवेदक ने आकर कहाभूषितभुवनाभोगो दोषान्तकरः समुत्थितो भानुः । - दर्शयितुमिव नवायं समगुणभावेन मित्रत्वम् ॥ अर्थात्-संसार को अलंकृत करने वाला, रात्रि का अन्त करने वाला सूर्य उदित हो गया है । मानो समान गुणों वाला होने के कारण ET आप के साथ मित्रता करना चाहता 1
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इसके बाद सार्थवाह शय्या से उठा । प्रातःकृत्य से निबट कर चहुत से लोगों के साथ आचार्य के समीप गया । वहाँ पहुँच कर मुनियों से घिरे हुए धर्मघोष आचार्य के दर्शन किए। आचार्य करुणा के निवास, धैर्य के निधान, नीति के घर, चारों प्रकार की बुद्धि के उत्पत्तिस्थान, साधु धर्म के आधार, सन्तोष रूपी अमृत के समुद्र तथा क्रोध रूपी प्रचण्ड अग्नि के लिए जल से भरे बादल के समान थे।
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अपने को कृतार्थ समझते हुए सार्थवाह ने प्रसन्नचित्त होकर भक्तिपूर्वक आचार्य तथा सभी मुनियों को वन्दना की । संसार के मूल कारण कर्मरूपी पर्वतों का दमन करने में वज्रानल के समान गुरु महाराज ने उस का अभिनन्दन किया । पास बैठ कर धन्ना सार्थवाह कहने लगा- भगवान् ! पुण्यहीन के घर में कल्प वृक्ष नहीं उगता, न कभी वहाँ धन की वृष्टि होती है। आप संसार समुद्र से पार होने के लिए जहाज के समान हैं। तृण, मणि, पत्थर, सोना, शत्रु और मित्र सभी आपके लिए समान हैं । आप सच्चे धर्म का उपदेश देने वाले सद्गुरु हैं। ऐसे आप को प्राप्त करके भी मैने कभी आपका अमृत समान वचन नहीं सुना। संसार में प्रशंसनीय थाप के चरणकमलों की सेवा भी कभी नहीं की। कभी आप का ध्यान भी नहीं किया । प्रभो ! मेरे इस प्रमाद को क्षमा कीजिए । उसका वचन सुन कर श्रवम को जानने वाले आचार्य ने
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