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श्री सेठया जैन ग्रन्थमाला
उत्तर दिया- सार्थपते ! आपको दुखी न होना चाहिए । जंगल में क्रूर प्राणियों से हमारी रक्षा करके आपने सब कुछ कर लिया । काफिले के लोगों से हमें इस देश तथा हमारे कल्प के अनुसार आहार आदि मिल जाते हैं ।
सार्थवाह ने फिर कहा - प्रभो ! यह आपकी महानता है कि आप मेरी प्रशंसा करते हैं तथा प्रत्येक परिस्थति में संतुष्ट रहते हैं । किसी दिन मुझे भी दान का लाभ देने की कृपा कीजिए ।
श्राचार्य ने उत्तर दिया -कल्पानुसार देखा जायगा । इसके बाद सार्थवाह वन्दना करके चला गया ।
उस दिन के बाद सार्थवाह प्रतिदिन भोजन के समय भावना भाने लगा । एक दिन गोचरी के लिए फिरते हुए दो मुनि उस के निवासस्थान में पधारे। सार्थवाह को बड़ी खुशी हुई। वह सोचने लगा - इन्हें क्या बहराया जाय ! पास में ताजा घी पड़ा था । सार्थवाह ने उसे हाथ में लेकर मुनियों से प्रार्थना की-यदि कल्पनीय हो तो इसे लेकर मुझ पर कृपा कीजिए। 'कल्पनीय है' यह कह कर मुनियों ने पात्र बढ़ा दिया । सार्थवाह बहुत प्रसन्न होकर अपने जन्म को कृतार्थ समझता हुआ घी बहराने लगा । इतने में पात्र भर गया। मुनियों ने उसे ढक लिया। भावपूर्वक बन्दना करके सार्थवाह ने मुनियों को विदा किया।
सार्थवाह ने भाव पूर्वक दान देकर बोधिबीज को प्राप्त किया । भव्यत्व का परिपाक होने से वह अपार संसार समुद्र के किनारे पहुँच गया। देव और मनुष्यों के भवों से उसने विविध प्रकार के सुख प्राप्त किए। संसार समुद्र को पार करके मोक्ष रूपी तट के समीप पहुँच गया। इसके बाद उसने तीर्थंकर गोत्र बाँधा । धन्ना सार्थवाह का जीव तेरहवें भाव में वर्तमान चौवीसी के प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव के भव में उत्पन्न होकर नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त