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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४५३
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हुथा| तेरह मत्रों का वृत्तान्त वोल नं. ८२० में दिया गया है जिस सम्यक्त्व के बीज मात्र से ऐसा फल प्राप्त होता है उस की साक्षात् प्राप्ति होने पर तो कहना ही क्या ? कहा भी हैअसम सुखनिधानं धाम संविग्नतायाः । भवसुखविमुखत्वाद्दीपने सद्विवेकः ॥ नरनरकपशुत्वोच्छेदहेतुर्नराणाम् । शिवसुखतरुमूलं शुद्धसम्यक्त्वलाभ. ॥
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अर्थात् शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति सुख का अनुपप निधान है संवेग का घर है । सांसारिक सुखों से विरक्ति बढ़ाने के लिए सच्चा विवेक है | मनुष्य, तिर्यञ्च और नरकगति को काटने वाला है तथा मोक्ष का मूल कारण है । सम्यक्त्वमेकं मनुजस्य यस्य, हृदिस्थितं मेरुरिवाप्रकम्पम् । शङ्कादिदोषापहृतं विशुद्धं, न तस्य तिर्यड़नरके भयं स्यात् ॥
अर्थात्- जिम व्यक्ति के हृदय में मेरु के समान निष्प्रकम्प, शङ्का आदि दोपों से रहित तथा शुद्ध सम्यक्त्व जम जाता है उसे तिर्यञ्च और नरक गति का भय नहीं रहता ।
( ५ ) सम्यक्त्व में शङ्का दोप के लिए मयूराएड और सार्थवाहपुत्र का उदाहरण -
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चम्पा नगरी से उत्तर पूर्व में सुभूमिभाग नाम का उद्यान था । उसमें तालाब के मालुका कच्छ नामक किनारे पर एक मयूरी रहती थी । समय पाकर उसने दो अण्डे दिये । नगर में जिनदत्त और सागरदत्त नामक सार्थवाहों के दो पुत्र वालमित्र थे । एक दिन वे दोनों सैर सपाटा करने के लिए उसी उद्यान में आए। वहाँ घूमते हुए वे मालुकाकच्छ किनारे पर पहुॅचे। उन्हें देख कर मयूरी डर गई । वृक्ष पर बैठ कर भयभीत दृष्टि से मालुका कच्छ और उन दोनों की ओर देखने लगी ।