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________________ श्री जैन सिद्धान्त.बोल संग्रह, चौथा भाग जाती है उसी प्रकार सर्वथा पुण्य का क्षय हो जाने पर मोक्ष हो जाता है। जसरे पक्ष में विलकुल इससे उल्टा है। जैसे अपथ्याहार बढ़ने पर रोग की वृद्धि तथा घटने पर रोग कम हो जाता है। उसी तरह . पाम बढ़ने पर दुःख की वृद्धि तथा पाप घटने पर सुख की वृद्धि होती है। पापका, सर्वथा नाश हो जाने पर मोक्ष हो जाता है। . जैसे सर्वथा अपथ्याहार छोड़ देने पर रोग से मुक्ति हो जाती है। " तीसरे में एक ही वस्तु के पुण्य और पाप रूप,दो अंश हैं, जैसे मेनकमणि में कई रंग होते हैं, अथवा नरसिंह में नरव और सिंहत्व दोनों रहते हैं, उसी प्रकार एक ही वस्तु में पुण्य और पाप मिले रहते हैं, पुण्यांश के अधिक होने पर वही सुख का कारण तथा पापांश के अधिक होने पर वही दुःख का कारण हो जाती है। चौथे पक्ष में पुण्य और पाप दोनों मिन भिन्न स्वतन्त्र वस्तुएं हैं, क्योंकि इन दोनों के कार्य मिन मित्र तथा परस्पर विरोधी हैं। पुण्य का कार्य सुख देना है और पाप का दुःख देना। ... पांचवें पक्ष में संसार स्वभाव से ही सुखी या दुःखी हुआ करता है। अलग किसी कारण को मानने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए पुण्य और पाप नहीं हैं। .. . इनमें से चौथा पक्ष आदेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य है, बाकी चार नहीं । स्वभाव वाद का खण्डन अमिभूति के बाद में किया जा चुका है। कर्मों की सिद्धि के लिए और भी बहुत से अनुमान दिए जा सकते हैं, जैसे-दानादिशुभ क्रियाओं तथा हिंसा आदि अशुभ क्रियाओं का कोई न कोई फल है, क्योंकि वे कारणरूप हैं, जैसे खेती आदि क्रियाओं का फल धान्य आदि की प्राप्ति है। इसी तरह दानादि क्रियाओं का फल पुण्य तथा हिंसादि क्रियाओं का फल पाप है। इसी प्रकार देह आदि का कोई कारण है, क्योंकि वे कार्य
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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