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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला . मनुष्य और निर्यश्च गति में दुःख होने पर भी सुख मिला हुआ है। इस लिए तीव्र पाप कर्मों का फल नरकों में ही मोगा जाता है।
- इस प्रकार समझाया जाने पर अंकम्पित खामी का सन्देह दूर हो गया। वे भगवान् महावीर के शिष्य हो गए और आठवें गणघर कहलाए।
- (गाथा १८८५-१९०४) (8) अचल भ्राता-दर्शनार्थ आए हुए अचल भ्राता को. देखकर भगवान् ने कहा- हे अचल भ्राता। तुम्हारे मन में सन्देह है कि पुण्य और पाप हैं या नहीं ? यह संशय तुम्हें परस्पर विरोधी बात : बताने वाले वेदवाक्यों से हुआ है।
पुण्य और पाप के विषय में पांच मत हैं-(११ पुण्य ही है, पाप, नहीं है । (२) पाप ही है पुण्य नहीं है। (३) पाप और पुण्य दोनों मिले हुए हैं जैसे मेचकमणि में कई रंग मिले हुए होते हैं और वे मिश्रित सुख और दुःख के कारण हैं । इस लिए पुण्य पाप नामक एक ही वस्तु है। (४) पुण्य और पाप दोनों स्वतन्त्र और मित्र... मिन्न स्वरूप वाले हैं। पुण्य सुख का कारण है और पाप दुख का। (५)पुण्य या पाप रूप सत्ता ही नहीं है। सारा संसार अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं परिवर्तित हो रहा है। __ पहले पक्ष में जैसे जैसे पुण्य बढ़ता है, सुख भी अधिक होने , लगता है । जैसे जैसे पुण्य घटता है सुख कम और दुःख अधिक होने लगता है । सुख और दुःख पुण्य की मात्रा पर अवलम्बित हैं। पाप को अलग मानने की आवश्यकता नहीं है। पुण्य का सर्वथा षय होने पर मोक्ष हो जाता है। जैसे पथ्याहार की वृद्धि होने पर
आरोग्य की वृद्धि होती है, उसी प्रकार पुण्य की वृद्धि से सुख की वृद्धि होती है । जैसे पथ्याहार क्रम से छोड़ने पर शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं उसी प्रकार पुण्य की कमी होने पर दुःख उत्पन्न हो जाते हैं। सर्वथा पाहार का त्याग कर देने पर जैसे मृत्यु हो