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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला लोगों के सामने जिनशासन की निन्दा करते हो । ऐसा तुम अज्ञान से करते हो या तुम्हें अपने ज्ञान का बहुत घमण्ड है ? यदि प्रज्ञान से ऐसा करते हो तो अब छोड़ दो, क्योंकि जो जीव अज्ञान के कारण जिनशासन की निन्दा करते हैं वे भव भव में दुःख प्राप्त करते हैं तथा ज्ञान गुण से हीन होते हैं। कहा भी है
ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निन्दापद्वेषमत्सरै। उपघातैश्च विघ्नैश्च, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥ अर्थात्-ज्ञान या ज्ञानी की निन्दा, द्वेष, ईर्ष्या, उपघात और विनों से ज्ञान का नाश करने वाला कर्म बाँधता है। __यदि तुम जान कर ऐसा करते हो तो राजा की सभा में बहुत से सम्यों के सामने मेरे साथ वाद कर लो। मूर्ख तथा प्रज्ञान जनता को क्यों ठगते हो ? मैं यो तुम जो भी हारे वह दूसरे का शिष्य बन जाय यह प्रतिज्ञा कर लो। ऐसा कहने पर वह द्विजपुत्र कुपित होकर कहने लगा-श्रमणाधम ! तुम्हें बहुत घमण्ड है। अगर शास्त्रार्थ करने की मन में है तो सुबह पा जाना । राजसभा में तुम्हारा घमण्ड उतर जायगा । सुव्रत मुनि ने उसकी बात को स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन सूर्योदय होते ही वे राजा की सभा में पहुँच गये। थोड़ी देर में यज्ञदेव भी वहाँ आ गया। सुव्रत मुनि ने उससे कहातुम्हारे कहने के अनुसार मैं राजसभा में आ गया हूँ। राजा स्वयं इसके सभापति हैं। नगर के विशिष्ट लोग सभ्य हैं। ये सभी मध्यस्थ हैं। ये जो फैसला देंगे वह हम दोनों को मान्य होगा। भव तुम्हें जो कुछ कहना हो कहो।
यज्ञदेव ने पूर्वपन किया- तुम लोग अधम हो, क्योंकि वेद के अनुसार अनुष्ठान नहीं करते हो, जैसे चाण्डाल । यहाँ हेतु प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि वैदिक क्रियाएं शौचविधि के बाद होती हैं। तुम लोग शरीर तथा पत्र दोनों से मलिन हो, इस लिए अशुचि