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श्री जैन सिद्धान्त वोल सप्रह, चौथा भाग ४३७ हो । अशुचि होने के कारण किसी प्रकार की दिक क्रिया नहीं कर सकते । इम लिए अधम हो।
सुव्रत मुनि ने उत्तर दिया-तुम्हारा कहना लोक और भागम से बाधित अर्थात् विरुद्ध है, क्योंकि साधुओं को लौकिक शास्त्रों में प्रशस्त अर्थात उत्तम और पवित्र माना है। कहा भी है- ।
साधुनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थ पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः ।।
अर्थात-साधुओं का दर्शन कल्याण देने वाला है, क्योंकि साधु तीर्थरूप होते हैं। तीर्थ तो देर से पवित्र करता है किन्तु साधुओं का समागम शीघ्र पवित्र करता है। वेद के अनुयायी भी मानते हैं कि
शुचिर्भूमिगतं तोयं, शुचिनारी पतिव्रता। शुचिर्धर्मपरो राजा, ब्रह्मचारी सदा शुचिः॥ अर्थात- भूमि के अन्दर रहा हुआ पानी, पतिव्रता स्त्री और धर्मपरायण राजा पवित्र हैं । ब्रह्मचारी सदा पवित्र है।
आपने कहा-जैन साधु वेदविहित अनुष्ठान नहीं करते, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वेदों में हिंसा का निषेध किया गया है और जैन साधु हिंसा के पूर्ण त्यागी होते हैं
जैन साधु अहवित्र रहते हैं। इस लिए वेद विहित कर्मानुष्ठान के अधिकारी नहीं हैं, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शौचं अनेक प्रकार का है । वेदवादी भी मानते हैं
सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौज, जलशौचं च पञ्चमम् ॥ अर्थात-सत्य, तप, इन्द्रिय निग्रह और प्राणियों की दया सभी शोच है, अर्थात् आत्मा को पवित्र करने वाले हैं। पाँचवॉ जलशौध है।