________________ જર श्री सेठिय जैन प्रन्यमाला सस्य भागश्चतुर्योऽयं, संसाराभयदायिनः। श्रीमद्वीरजिनेन्द्रस्य, जयन्यांपूर्णतामगात्।। 6 // - निधिनक्षत्रसंख्येन्दी, वत्सरे वैक्रमे वरे। चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां, चन्द्रवारे शुभे दिने // 7 // अर्थात्-जन्म मरण के झगड़े का अन्त करने वाले तथा देवता और इन्द्रों के समूह द्वारा सदा वन्दित वीवराग भगवान् के चरण युगल को नमस्कार हो॥१॥ . जो मुनि लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होते हुए शाख रूपी समुद्र को मथ कर उसका सार भव्य प्राणियों को देते हैं, जिनकी कृपा के बिना सभी सुखों को देने वाली वर्तमान भगवान की वाणी का रहस्य मालूम नहीं पड़ सकता, ऐसे तप, त्याग और सहनशीलताआदिगुणों के समुद्र,महावतों से मण्डित तथा मोह का त्याग करने वाले मुनियों को मोक्षमार्ग की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।२-३-४॥ धर्म के मर्म को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करने वाले , प्रमाणों से सहित 'श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह' का चौथा भाग संसार को अमय देने वाले जिनेश्वर भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की जयन्ती के दिन विक्रम संवत् 1664 चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार को समाप्त