________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४ - का क्षय होने से जैसे जीव सिदत्व रूप खभाव को प्राप्त कर लेता
है। ऊर्ध्वगति रूप जीव का खभाव है। अथवा जिस प्रकार तुम्नी, एरएडफल, अमि, धूम और धनुष से छूटे हुए नाण की गति होती है उसी प्रकार सिदों की भी पूर्वप्रयुक्त वेग से गति होती है। . शबर-जितनी वस्तुएं भमूर्त है वे सभी प्रक्रिय है,जैसे आकाश। आत्मा अमृत है तो इसे अक्रिय भी मानना पड़ेगा। '
समाधान- दूसरे अमूतों के अक्रिय होने से अगर सक्रिय आत्मा को भी अक्रिय सिद्ध किया जा सकता है तो दूसरे प्रमों के जड़ होने से आत्मा को भी जड़ मानना पड़ेगा। जिस प्रकार दूसरे अमूतों के जड़ होने पर भी मिन्न स्वभाव वाले आत्मा को जड़ नहीं कहा जा सकता, इसी प्रकार दूसरे अमूर्तों के अक्रिय होने पर भी आत्मा अक्रिय नहीं है। नीचे लिखे अनुमान से भी आत्मा सक्रिय सिद्ध होता है-आत्मा सक्रिय है, क्योंकि कर्ता और भोक्ता है जैसे कुम्भार, अथवा आत्मा सक्रिय है, क्योंकि प्रत्यक्ष से शरीर का हलन चलन दिखाई देता है, जैसे यन्त्रपुरुष (मशीन का बना हुमा पुरुष)। कर्म न होने पर भी सिद्ध गति के परिणामस्वरूप सिद्धों में भी क्रिया होती है। .
शङ्का- यदि सिद्ध जीवों के स्वभाव के कारण ही ऊर्ध्वगति होती है तो सिद्ध क्षेत्र से आगे भी गति क्यों नहीं होती? ___ • समाधान-सिद्धगति के बाद धर्मास्तिकाय न होने से गति नहीं होती, क्योंकि लोकाकाश के साथ ही धर्मास्तिकाय और अभमास्तिकाय समाप्त हो जाते हैं। जीव और पुद्गलों की गति विना धर्मास्तिकाय के नहीं होती इस लिए जीव ऊपर जाता हुआ मागे धर्मास्तिकाय न होने से रुक जाता है। जैसे मत्स्य पानी के बिना नहीं चल सकता उसी तरह धर्मास्तिकाय के विना जीव और पुद्गल की गति नहीं होती।