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श्री जैन सिद्धान्त बोज साह, चौथा भाग १६१ हुई सारी बात कह दी। यह सुन कर उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। राजा की आज्ञा लेकर उसने दीवाले ली।
जुगुप्सा का कटु फल जान कर उसे त्यागना चाहिए। (६) परपापण्डप्रशंसा के लिए सयडाल की कथा
पाटलीपुत्र में नन्द वंश और कल्पक वंश का सम्बन्ध बहुत पुराना चला रहा था । जिस समय नवॉनन्दराज्य कर रहा था, कल्पक वश का सयडाल नामक मन्त्री था। उसका असली नाम श्रीवत्स था । सौ पुत्र उत्पन्न होने के कारण राजा उसे सयडाल कहने लगा था, क्योंकि उसके वंश की सौ शाखाएं हो गई थी। उसके त्याग, भोग, दाक्षिण्य, लावण्य मादि गुणों के कारण सभी पुत्रों में प्रधान स्थूलभद्र नाम का एक पुत्र था। सब से छोटे का नाम श्रियक था।
उसी नगर में वररुचि नामका बाहरण रहता था। वह प्रतिदिन नए नए एक सौ पाठ श्लोक बनाकर राना की प्रशंसा किया करता था। राजा सन्तुष्ट होने पर भी कुछ नहीं देता था। केवल सयडाल के मुंह की ओर देखने लगता । वररुचि मिथ्यावी था, इस लिए सयडाल उसकी प्रशंसा नहीं करता था। वररुचि इस बात को समझ गया । उसने सयडाल की स्त्री के पास जाकर उसी की प्रशंसा करना शुरू किया । स्त्री द्वारा पूछा जाने पर वररुचि ने सारी बात कह दी।
एक दिन स्त्री ने पूछा-माप वररुचि की प्रशंसा क्यों नहीं करते १ सयडाल ने उत्तर दिया-वह मिथ्यात्वी है। ।
स्त्री ने कहा-महापुरुष नियम पाले होते हैं। भावदोष को टालना चाहिए । उसकी प्रशंसा करने में तुम्हारा तो कोई स्वार्थ नहीं है। • फिर क्या दोष है ? स्त्री ने उसे रोज इसी प्रकार कहना शुरू किया।
स्त्री द्वारा बार बार कहा जाने पर एक दिन सयडाल ने उस