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ओ जेन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग (७) उ०-केवल ज्ञान की प्राप्ति न होने से खिन्न चित्त हुए गौतम स्वामी को भगवान् महावीर का प्राश्वासन । द्रव्य तुल्यता, क्षेत्र तुन्यता आदि छः भेद, भन्नत्प्रत्याख्यानी अनगार आहार में मूञ्छित नहीं होता । लवसप्तम देवों का अर्थ ।
(८) उ०-रत्नप्रभा पृथ्वी का अन्य छः पृथ्वियों से अन्तर, रत्नप्रभा का सौधर्म देवलोक आदि से अन्तर । वारह देवलोकों का
और अनुत्तर विमान आदि की पारस्परिक अन्तर, शालवृक्ष, शाल यटिका, उंचर यष्टिका, अंवड़ परिव्राजक मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे? जम्भक देवों के मेद, स्थिति, स्थान आदि के विषय में प्रश्नोत्तर।
(8) उ०-भावितात्मा अनगार क्या अपनी कर्म लेश्या को जानता और देखता है ? क्या-पुद्गल प्रकाशित होता है ? नैरयिक यावत् असुरकुमार आदि को पात और अनात्त पुद्गल सुखकारी या दुःखकारी होते हैं ? महद्धिक देव हजार रूप की विकुर्वणा कर हजार भाषा बोलने में समर्थ हो सकता है ? सूर्य और सूर्य की प्रमा, श्रमणों के सुख की तुलना।
(१०) उ०-केवली और सिद्ध, छमस्थ को, अवधिज्ञानी को तथा रत्नप्रभा यावत् ईपत्याग्मारा पृथ्वी को जानते और देखते हैं। केवली शरीर को सकुचित एवं प्रसारित करते हैं तथा भाँख को खोलते और चन्द करते हैं इत्यादि प्रश्नोचर ।
पन्द्रहवॉ शतक (१) उ०-इस शतक में एक ही उद्देशा है। इसमें श्रमण मगवान महावीर के शिष्य गोशालक का अधिकार है। भगवान के पास दीक्षा लेना, शान पड़ना, तेजोलेश्या प्रकट करना, भगवान् को जलाने के लिए भगवान् पर तेजोलेश्या फेंकना, सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि को जला कर भस्म कर डालना । इसके सात दिन बाद गोशालक का काल कर जाना । मरते समय गोशालक