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श्री.जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, चौथा भाग । २०६ किया गया है । हिंसा के प्राणिवध, चण्ड, रौद्र, क्षुद्र आदि गुणनिष्पन तीस नाम हैं। हिसा क्यो की जाती है ? इसके कारण वताएं गए हैं। हिंसा करन वाले पञ्चेन्द्रियो मे जलचर, स्थलचर आदि के नाम विस्तार पूर्वक दिए गए है। आगे चोरिन्द्रिय, तेइन्द्रिय, वइन्द्रिय जीवों के नाम दिए हैं। आगे पृथ्वीकाय आदि यांच स्थावर काय के प्रारम्भ का वणन दिया गया है । मदबाद्ध जीव स्ववश या परवश हाकर प्रयाजन से या विना प्रयोजन, सार्थक या निरर्थक धनोपाजन के लिए, धर्म के निमित्त ओर कामभोगी की प्राप्ति के लिए क्रोध, मान, माया ओर लोभ से प्राणियों की हिसा करता है। शकरदश, यवनदेश, वर्वरदेश आदि अनाये देशों में उत्पन्न हान वाले जीव प्रायः हिसक होते है । मर कर व जीव नरक में उत्पन्न होते हैं। वहाँ क्षेत्र वेदना और परमाधार्मिकों की घोर वेदना को सहन करना पड़ता है । परमाधामिक देवताओं द्वारा दी जाने वाली वेदना का वर्णन शास्त्र में बड़े ही रोमाञ्चकारी ढङ्ग से किया गया है । उनकी दो हुई वेदना से घवरा कर नरयिक अत्यन्त करुण विलाप करते हैं तब वे कहते हैं कि यह पूर्वभव में किये गये तेरे कर्मों का फल है। पाप कर्म करते समय तू वड़ा प्रसन्न होता था अन उन कुकृत्यों का फल भोगते समय क्यों घबराता है? इत्यादि वचन कह कर उसकी निर्भर्त्सना करते हैं। नगर के चारों ओर
आग लग जाने पर जिस प्रकार नगर में कोलाहल मचता है उसी तरह नरक में सदा काल निरन्तर कोलाहल और हाहाकार मचा रहता है। नैरयिक दीनता पूर्वक कहते हैं कि हमारा दम घुटता है हमें थोड़ा विश्राम लेने दो, हम दोनों पर दया करो किन्तु परमाधार्मिक देव उन्हें एक क्षण भर के लिए भी विश्राम नहीं लेने देते। प्यास से व्याकुल होकर वे कहते हैं हमें थोड़ा पानी पिलाओ तब वे देव उन्हें गरम किया हुआ सीसा पिला देते हैं