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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ४७ मेरे पुत्रों को मारकर तू जीवित कैसे जा सकता है। __राजा की तर्जना सुन कर आचार्य भय से कांपने लगा। लजा से मुह नीचा किए वह सोचने लगा-इसके पुत्रों के आभूषणों को लेकर मैंने बहुत बुरा कार्य किया । मोह के कारण मेने विवेक खो दिया । मेरे पाप का सारा हाल इस राजा ने जान लिया है। अब यह मुझे बुरी मौत से मरवाएगा। मेरे पाप का फल सामने आ गया है। अब कौन बचा सकता है । मैंने प्रारम्भ से ही विना विचार किया जो भोगों की इच्छा से संयम के सुख को छोड़ दिया। जिस समय प्राचार्य इस प्रकार सोच रहा था उसी समय वह देव माया का संहार करके, अपने शरीर की कान्ति से दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ उसके सामने निजी रूप में प्रकट हुआ और कहने लगा-भगवन् ! मै आपका वही प्रिय शिष्य हूँ जिसे संथारा स्वयं पूरा करा के आपने देवलोक से आने को कहा था । बत के माहात्म्य से मैं विशाल ऋद्धि वाला देव हुआ हूं। आप के वाक्य का स्मरण करके वचनवद्ध होने से यहाँ आया हूँ।।
मार्ग में आपने जो नाटक देखा था, संयम से भ्रष्ट चित्त वाले आप को वोध कराने के लिए वह मैने ही रचा था। आपके भावों की परीक्षा के लिए मैंने ही छ. कायों के नाम वाले चालक और साध्वी की विक्रिया की थी। आप के बढ़ते हुए महामोहको देख कर उसे नष्ट करने के लिए मैंने ही सेना आदि का भय दिखाया था। इस लिए शङ्का आदि दोपों को निकाल दीजिए। उन्मार्ग में जाते हुए मन को सन्मार्ग में लगाइए । शास्त्रों में आया है
संकंत दिव्यपेम्मा, विसयपसत्तासमत्त कत्तव्वा । अपहीण मणुकज्जा, नरभवमसुइन इंति सुरा।। चत्तारिपंच जोअण सयाई, गंधो उमणुभ लोगस्स। उदं वचई जेणं, न हु देवा तेण आवति ॥