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________________ श्री सेठिया जैन प्रन्थमाता एक दिन महाराज वजनाम के सामने उपस्थित होकर शस्त्रागार रक्षक ने श्रायुधशाला में चक्ररत उत्पन्न होने की बधाई दी। उसी समय दूसरी ओर से 'वनसेन तीर्थङ्कर को केवलज्ञान हुआ है। यह बधाई आई । इसी समय वजूनाम को अपने यहाँ सुत्र जन्म की बधाई भी मिली । चक्रवर्ती वजनाम ने सब से पहले वजूसेन तीर्थकर के केवलज्ञान की महिमा की अर्थात् वन्दन और वाणी श्रवण आदि का लाभ लिया । इसके पश्चात् चक्ररत और पुत्र उत्पन्न होने के महोत्सव किये। छः खण्ड पृथ्वी का विजय करके वजूनाम बहुत वर्षों तक चक्रवर्ती पद का उपभोग करता रहा । कुछ समय पश्चात् चक्रवर्ती वजनाम को संसार से वैराग्य होगया। भगवान् वजूसेन के पास दीक्षा अङ्गीकार कर अनेक प्रकार के कठिन तप करते हुए विचरने लगे। अरिहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर भादि का गुण कीर्तन, सेवा, भक्ति, आदि तीर्थङ्कर पद के योग्य बीस बोलों की धाराधना करके उत्कृष्ट भावों द्वारा तीर्थङ्कर नाम उपार्जन किया। . (१२) आयुष्य पूर्ण होने पर शरीर त्याग कर वजूनाम मुनि सर्वार्थ सिद्ध विमान में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले सर्वोत्कृष्ट देव हुए। (१३) वतमान अवसर्पिणी काल दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम का है। इसमें छारे हैं - सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा और दुषमदुषमा । जब पहला और दूसरा पारा बीत चुका था और तीसरे आरे का बहुत सा माग भी बीत चुका था केवल चौरासी लाख पूर्व से कुछ अधिक काल बाकी था उस समय भी कुछ कुछ युगलिया धर्म प्रचलित था। उस समय नामि नाम के कुलकर थे, वे ही युगलियों के राजा थे। उनकी रानी का नाम मरुदेवी था।
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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