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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग ३७५ त्रैलोक्यं सचराचरं विजयते यस्य॑ प्रसादादिदं । योऽत्रामुत्र हितावहस्तनुभृतां सर्वार्थसिद्धिप्रदः ।। येनानर्थकदर्थना निजमहः सामर्थ्यतो व्यर्थिता । तस्मै कारुणिकाय धर्मविभवे भक्तिपणामोऽस्तु मे॥
भावार्थ-जिस धर्म के प्रभाव से स्थावर और जंगम वस्तुओं वाले ये तीनों लोक विजयवन्त हैं । जो इस लोक और परलोक में प्राणियों का हित करने वाला है और सभी कार्यों में सिद्धि देने चाला है। जिसने अपने तेज के सामर्थ्य से अनर्थ जनित पीड़ाओं को निष्फल कर दिया है। उस करुणामय धर्म विभु को मेरा भक्ति पूर्वक नमस्कार हो।
इस प्रकार की धर्म भावना से यह आत्मा धर्म से च्युत नहीं होता और धर्मानुष्ठान में तत्पर रहता है।
इन वारह भावनाओं का फल बताते हुए स्वर्गीय शतावधानी पण्डित मुनि श्री रत्नचन्द्रजी स्वामी ने कहा है
एतद्वादशभावनाभिरसुमानेकान्ततो योऽसकृत् । स्वात्मनं परिभावयेत्निकरणैः शुद्धैः सदा सावरम्॥ शाम्यन्त्युप्रकषायंदोषनिचया नश्यन्त्युपाध्याधयो। दुःख तस्य विलीयते स्फुरति च ज्ञानप्रदीपोधुवम् ॥
भावार्थ-जो प्राणी एकान्त में बैठ कर मन, वचन और काया की शुद्धि पूर्वक तथा आदर भक्ति के साथ सदा वार चार इन भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करता है उसके उग्र कषाय दोषों का समूह नष्ट हो जाता है, प्राधि और उपाधि शान्त हो जाती हैं उसका दु:ख विलीन हो जाता है और शाश्वत ज्ञान प्रदीप प्रकाश करता रहता है।
भावना जोग सुद्धप्पा, जले नावा' वाहिया। नावा व तीर संपन्ना, सव्वदुक्खा तिउद्दई ।
मियाटाग मत्र ययन १५ गाथा"