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________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला ३७४ सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म है । 1 इसी तरह दान, शील, तप और भाव रूप धर्म भी कहा गया है। जिन भगवान् से कहा हुआ उक्त स्वरूप वाला धर्म सत्य है एवं प्राणियों के लिये परम हितकारी है। राग और द्वेष से रहित, स्वार्थ और ममता से दूर, पूर्णज्ञानी, लोकत्रय का हित चाहने वाले जिन भगवान् से उपदिष्ट धर्म के अन्यथा होने का कोई कारण नहीं है । धर्म चार पुरुषार्थ में प्रधान है और सब का मूल कारण है। इस धर्म की महिमा अपार है । चिन्तामणि, कामधेनु और कल्प वृक्ष इसके सेवक हैं। यह धर्म अपने भक्त को क्या नहीं देता ! उसके लिये १ विश्व में सभी सुलभ हैं । धर्मात्मा पुरुष को देवता भी नमस्कार I करते हैं । दशवेकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा हैधम्मो मंगल मुक्क, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नर्मसंति, जस्स धम्मे सया मणो भावार्थ - अहिंसा, संयम और तपरूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है | जिस का चित्त धर्म में लगा हुआ है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं ! संसार के बड़े बड़े साम्राज्य और ऐश आराम की मनोहर सामग्री इसी धर्म के फल हैं। पूर्णिमा के चन्द्र जैसे उज्ज्वल सद्गुणों की प्राप्ति भी इसी के प्रभाव से होती है। समुद्र पृथ्वी को नहीं बहाता, मेघ सारी पृथ्वी को जलमय नहीं करते, पर्वत पृथ्वी को धारण "करना नहीं छोड़ते, सूर्य और चन्द्र अपने नियम से विचलित नहीं होते, यह सभी मर्यादा धर्म से ही बनी हुई है । 11 यह धर्म बान्धव रहित का बन्धु है, बिना मित्र वाले का मित्र है, रोगियों के लिये औषध है, धनाभाव से दुःखी पुरुषों के लिये धन है, अनाथों का नाथ है और अशरण का शरण है । धर्म की स्तुति करते हुए उपाध्याय श्री. विनयविजयजी कहते
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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