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________________ मो जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग उन्होंने दीक्षा अङ्गीकार कर ली। उत्कृष्ट तप का अराधना कर इस अशुचिमय शरीर को छोड़ कर सिद्धपद प्राप्त किया। यह कथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र द्वितीय माग में बहुत विस्तार के साथ दी गई है। (७) श्राव भावना-समुद्रपाल मुनि ने भाई थी। चम्पा नगरी के पालित श्रावक के पुत्र का नाम समुद्रपाल था। उसके पिता ने अप्सरा जैसी एक महा रूपवती कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया था। उसके साथ समुद्रपाल रमणीय महल में दोगुन्दक देव के समान भोग भोगने लगा । एक दिन वह अपने महल की खिड़की में से नगरचर्या देख रहा था कि इतने में ही मृत्युदण्ड के चिन्ह सहित वध्यभूमि की ओर ले जाए जाते हुए एक चोर पर उसकी दृष्टि पड़ी। तं पासिऊण संविग्गो, समुद्दपालो इणमव्यवी। अहो असुहाण कम्माएं, णिज्जाणं पावगं इमं ॥ अर्थात्-उस चोर को देख कर उसके हृदय में तरह तरह के विचार उत्पन्न होने लगे। वैराग्य भाव से प्रेरित होकर वह स्वयं कहने लगा-अशुभ कर्मों के (अशुभ आश्रवों के) कैसे कडुए फल होते हैं। यह मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। इस प्रकार पावभावना के गहरे चिन्तन के परिणाम स्वरूप समुद्रपाल को जातिस्मृति ज्ञान पैदा हो गया। उन्होंने संसार त्याग कर संयम ले लिया और पुण्य और पाप रूप शुभ और अशुम दोनों प्रकार के कर्मों का नाश कर मोक्षपद प्राप्त किया। यह कथा उत्तगध्ययन सूत्र के समुद्रपालीय नामक इक्कीसवें अध्ययन में विस्तार के साथ आई है। इस अध्ययन की जैन साधु के लिए मार्गप्रदर्शक चारह गाथाओं का अर्थ इसी भागके बोल नं० ७८१ में दिया गया है।
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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