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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाना
हुए उनका विस्तृत वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के मृगापुत्रीय नामक उन्नीसवें अध्ययन में है ।
अन्त में माता पिता की आज्ञा लेकर मृगापुत्र प्रत्रजित होगये । यथावत् संयम का पालन कर मोच को प्राप्त हुए ।
(६) अशुचि भावना - सनत्कुमार चक्रवर्ती ने भाई थी । सनत्कुमार चक्रवर्ती बहुत रूपवान् था । उसके रूप की प्रशंसा बहुत दूर दूर तक फैल चुकी थी। एक दिन प्रातःकाल ही स्वर्ग से चल कर दो देव ब्राह्मण का रूप चना कर उसके रूप को देखने के लिए आए । सनत्कुमार चक्री उस समय स्नानार्थ स्नान घर में जा रहा था। उसे देख कर ब्राह्मणों ने उसके रूप की बहुत प्रशंसा की। अपने रूप की प्रशंसा सुन कर सनत्कुमार को बड़ा अभिमान हुआ । उसने ब्राह्मणों से कहा -तुम लोग अभी मेरे रूप को क्या देख रहे हो ? जब मैं स्नानादि कर वस्त्राभूषणों से १ सुसज्जित होकर राजसभा में सिहासन पर बैठूं तब तुम मेरे रूप को देखना | स्नानादि से निवृत्त होकर जब सनत्कुमार सिंहासन पर जाकर बैठा तब उन ब्राह्मणों को राजसभा में उपस्थित किया गया । ब्राह्मणों ने कहा- राजन् ! तुम्हारा रूप पहले जैसा नहीं रहा । राजा ने कहा- यह कैसे १ ब्राह्मणों ने कहा- आप अपने मुँह को देखें, उसके अन्दर क्या हो रही है १ राजा ने थूक कर देखा तो उसके अन्दर एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों कीड़े किलविलाहट कर रहे थे और उससे महान् दुर्गन्ध उठ रही थी । चक्रवर्ती का रूप सम्बन्धी अभिमान चूर हो गया । उन्हें शरीर की अशुचि का भान हो गया। वे विचारने लगे 'यह शरीर घृणित एवं अशुचिमय पदार्थों से उत्पन्न हुआ है और स्वयं भी अशुचि को भण्डार है' । इस प्रकार उनके हृदय में अशुचि भावना प्रबल हो उठी । संसार - से उन्हें वैराग्य हो गया । छः खण्ड पृथ्वी का राजपाट छोड़ कर
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