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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, गैथा भाग ३८३ इन सव को छोड़ कर अवश्य जाना ही पड़ेगा। जैसे किंपाक फल का परिणाम अच्छा नहीं होता अर्थात् किंपाक वृक्ष'का फल देखने में मनोहर तथा खाने में मधुर होता है परन्तु खाने के बाद थोड़ी ही देर में उससे मृत्यु हो जाती है, वैसे ही भोगे हुए भोगों का फल भी सुन्दर नहीं होता। नव मृगापुत्र की उपरोक्त वातों का उसके माता पिता कुछ भी जवाब न दे सके तव वे संयम मार्ग में आने वाले कष्टों को बतलाने लगे और कहने लगे तं पिंत अम्मापियरो, छंदेणं पुत्त पव्वया। एवरं पुण सामरणे, दुक्ख पिप्पडिकम्मया ॥ अर्थात्-हे पुत्र! यदि तेरी यही इच्छा है तो भले ही खुशी से दीक्षा ग्रहण कर किन्तु संयम मार्ग में विचरण करते हुए दुःख पड़ने पर प्रतिक्रिया अर्थात् रोगादि उत्पन्न होने पर उसकी चिकित्सा आदि नहीं होती । क्या यह भी तुझे खबर है ? मृगापुत्र ने जवाब दिया सो विंत अम्मापियरो, एवमेयं जहा फुडं। परिकम्मं को कुणा, अरगणे मिगपक्खीणं ॥ अर्थात्- हे माता पिताओ १ श्राप जो कहते हैं वह सत्य है परन्तु मैं आपसे पूछता हूँ कि जंगल में मृग तथा पक्षी आदि विचरते हैं। उनके ऊपर कट पढ़ने पर अथवा रोगादि उत्पन्न होने पर उनकी प्रतिक्रिया (चिकित्सा) कौन करता है ? अर्थात कोई नहीं करता किन्तु वह स्वतः नीरोग होकर जंगल में घास आदि खा कर स्वेच्छ भ्रमण करता है। इसी तरह उद्यमवन्त साधुः एकाकी मृगचर्या करके अपनी आत्मा को उन्नत बनाते हैं । मैं भी इसी तरह विचरूंगा। इस प्रकार माता पिता और मृगापुत्र के बीच में जो प्रश्नोत्तर
SR No.010511
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2051
Total Pages506
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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