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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग ३३१ में पाँचवी तक । इसके लिए नीचे लिखी गाथाएं उपयोगी है. सकीसाणा पढम,दोचं य सणकुमार माहिंदा। तचं य बंभलंतग, सुषसहस्सारग चउत्थी॥
आणयपाणयकप्पे देवा,पासंति पंचमि पुढवीं। तं चेव आरणच्चुय, ओहिनाणेण पासंति॥
समुद्घात-सौधर्म ईशान आदि धारहों कल्पों में देवों के पाँच समुद्घात होते हैं-वेदनीय समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात, वैक्रिय समुद्घात और तैजस समुद्घात ।
नुघा और पिपासा-सौधर्म आदि देवलोकों के देव नुधा और प्यास का अनुभव नहीं करते हैं।
विकुर्वणा-सौधर्म आदि देव एक, अनेक, संख्यात, असंख्यात अपने सदृश तथा विसदृश, सब प्रकार की विकुर्वणाएं कर सकते हैं। अनेक प्रकार की विकुणाएं करते हुए वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सब प्रकार के रूप धारण कर सकते हैं।
साता(सुख)-सौधर्म धादि कल्पों में मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ स्पर्श, पावत् सभी विपय मनोज्ञ और साताकारी हैं। ऋद्धि-सौधर्म आदि सभी देव महा ऋद्धि वाले होते हैं।
वेशभूषा-सौधर्म ईशान आदि देवों की वेशभूषा दो प्रकार की होती है-भवधारणीया और उत्तर विक्रिया रूप । भवधारणीया वेशभूषा श्राभरण और वस्त्रों से रहित होती है। उसमें कोई भी वाह्य उपाधि नहीं होती । उत्तर विक्रिया रूप वेशभूषा नीचे लिखे अनुसार होती है-उनका वक्षस्थल हार से सुशोभित होता है। वे विविध प्रकार के दिव्य आभूषणों से सुशोभित होते हैं । यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। देवियाँ सोने की झालरों से सुशोमित वस्त्र पहिनती हैं। विविध प्रकार के रत्नजटित नूपुर बथा दूसरे आभूषण पहिनती हैं। चाँदनी के समान शुभ्र वस्त्र धारण करती हैं।