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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग - जिसकी मति (प्रज्ञा) में लव मात्र का भी परिवर्तन नहीं हो सकता है वह सन्मति है। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने रचित गहन ग्रन्थ का नाम भगवान के नाम पर 'सन्मति प्रकरण' रक्खा है। इससे मालूम होता है कि भगवान का 'सन्मति' नाम
अधिक प्राचीन है। । (६) महतिवीर- व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) आदि श्रङ्ग. सूत्रों में और औपपातिक प्रभृति उपाङ्ग त्रों में स्थल स्थल पर लिखा है कि 'समणे भगवं महावीरे तीसे महति महालियाए परिसाए धम्म श्राइक्खई" अर्थात् श्रमण भगवान महावीर उस महातिमहान् ( महान् से महान ) सब से बड़ी परिषद को धर्म कहते है। इस प्रकार भगवान की धर्मदेशना-सभा को सर्वत्र महातिमहान (बड़ी से बड़ी) बताया है। कोपकार धनंजय ने भगवान की महातिमहान् (महति महालिया) धर्म परिषद् को ध्यान में रख कर भगवान को भी 'महति वीर' नाम से ख्यात किया हो ऐसा मालूम होता है अथवा 'महति' पद को सप्तम्यन्त समझा जाय तो उसका अर्थ 'बड़े में होगा और समस्त महति+चीर 'महतिवीर' का अर्थ घड़े लोगों में वीर (सव से बड़ा वीर) होगा। इस पक्ष में 'महावीर और महतिवीर के अर्थ में कुछ भी अन्तर न , होगा । बड़े पुरुषों के अनेक नामों का खास खास हेतु होता है इस दृष्टि से देखा जाय तो महतिवीर नाम का सम्बन्ध भगवान् की महातिमहान् धर्म-परिषद् के साथ जोड़ना युक्ति संगत मालुम होता है। (१०) अन्त्यकाश्यप-सूत्रकृताङ्ग सूत्र के तृतीय अध्ययन, तृतीय उद्देशक में भगवान को 'कासव-काश्यप शब्द से सम्बोधित किया है और दशकालिक सूत्र (अध्ययन चतुर्थ) में भगवान् को 'कासव-काश्यप- शब्द से विशिष्ट करके भी संबोधित किया है । भगवान् का गोत्र 'काश्यप था और भगवान् काश्यप