________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
४४५
|
यदि जल स्थानों को बनवाते हैं । जहाँ श्राकर हजारों प्राणी नहाते हैं, पानी पीते हैं और विविध प्रकार से शान्ति प्राप्त करते हैं। कल सुबह मैं भी राजा से पूछ कर जलाशय बनवाऊँगा ।
दूसरे दिन नन्द मणियार ने नहा धो कर राजदरवार में जाने योग्य वस्त्र पहिने | विशिष्ट उपहार ले जाकर राजा को भेंट किया और चावड़ी बनाने के लिए जगह मांगी । राजा श्र ेणिक ने उसकी बात मान ली।
यथा समय चावड़ी बन कर तैयार हो गई। उसके चारों तरफ बगीचा लगवाया गया। चित्रशाला, भोजन शाला, अतिथि शाला, दानशाला तथा सभागृह आदि बनाए गए। नगर तथा बाहर के सभी लोग उस बावड़ी का उपयोग करने लगे । नन्द की कीर्ति चारों ओर फैल गई । सर्वत्र उसकी प्रशंसा होने लगी । उसे सुन कर नन्द को बड़ा दर्द हुआ । उसका मन दिन रात बावड़ी में रहने लगा | वह उसी में आगक्त हो गया ।
एक चार नन्द पथियार के शरीर में सोलह भयङ्कर रोग उत्पन्न हो गए । वैद्यों ने बहुत इलाज किया किन्तु रोग शान्त न हुए। आर्चध्यान करते हुए उसने तिर्यञ्च गति का आयुष्य वाँधा तथा पर कर मूर्च्छा के कारण उसी बावड़ी में मेंढक रूप से उत्पन्न हुआ ।
एक दिन वह चावड़ी के तट पर बैठा था । इतने में कुछ लोग पानी का उपयोग करने के लिए उसी किनारे पर आए । पानी पीकर हाथ मुंह धोते हुए वे नन्द मणियार की प्रशंसा करने लगे। मेंढक को वे शब्द परिचित से जान पड़े। सोचने पर उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । सम्यक्त्व को छोड़ कर मिथ्यात्व ग्रहण करने के कारण उसे पश्चात्ताप हुआ । अपने आप श्रावक के व्रतों को धारण कर वह विधिपूर्वक उन्हें पालने लगा । ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रमण भगवान् महावीर फिर राजगृह में पधारे। पानी भरने वाली स्त्रियों
|