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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग
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निन्यान्वे पुत्रों को अलग अलग नगरों का राज्य दे दिया । माता मरुदेवी की आज्ञा लेकर वे विनीता नगरी के बाहर सिद्धार्थ वाग में पधारे। अपने हाथों से ही अपने कोमल केशों का लुञ्चन किया किन्तु इन्द्र की प्रार्थना से शिखा रहने दी । भगवान् ने स्वयमेव दीक्षा धारण की । इन्द्रादि देवों ने भगवान् का दीक्षा कल्याण मनाया | दीक्षा लेते ही भगवान् को मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न होगया । भगवान् के साथ चार हजार पुरुषों ने दीक्षा धारण की।
दीक्षा लेकर भगवान् वन की ओर पधारने लगे, तब मरुदेवी माता उन्हें वापिस महल चलने के लिये कहने लगी । जब भगवान् वापिस न मुड़े तब वह बड़ी चिन्ता में पड़ गई । अन्त में इन्द्र ने माता मरुदेवी को समझा बुझा कर घर भेजा और भगवान् वन की ओर विहार कर गये ।
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इस अवसर्पिणी काल में भगवान् सर्व प्रथम मुनि थे । इससे पहले किसी ने भी संयम नहीं लिया था। इस कारण जनता मुनियों के आचार विचार, दान आदि की विधि से बिल्कुल अनभिज्ञ थी । जब भगवान् भिक्षा के लिये जाते तो लोग हर्षित होकर वस्त्र, आभूपण, हाथी, घोड़े आदि लेने के लिये आमंत्रित करते किन्तु शुद्ध और पीक आहार पानी कहीं से भी नहीं मिलता । भूख और प्यास से व्याकुल होकर भगवान् के साथ दीक्षा लेने वाले चार हजार मुनि तो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने लग गये ।
एक वर्ष बीत गया किन्तु भगवान् को कहीं भी शुद्ध श्राहार नहीं मिला । विचरते विचरते भगवान् हस्तिनापुर पधारे। वहाँ के राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांस कुमार के हाथों से इक्षु रस द्वारा भगवान् का पारणा हुआ । देवों ने पाँच दिव्य प्रकट करके दान का माहात्म्य बताया । भगवान् का पारणा हुआ जान कर सभी लोगों को बड़ा हर्प हुआ। लोग तभी से मुनिदान की विधि समझने लगे ।