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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग
माना जा सकता।
यदि इन दोनों का सम्बन्ध अनादि माना जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अनादि सम्बन्ध कभी नष्ट नहीं हो सकता, जैसे जीव और ज्ञान का सम्बन्ध । इस प्रकार मोत का अभाव हो जाएगा।
समाधान-शरीर और कर्म की सन्तान परम्परा अनादि है, क्योंकि वे एक दूसरे के हेतु हैं। जैसे वीज और अंकुर । बीज से अंकुर पैदा होता है और अंकुर से वीज । यह नहीं कहा जा सकता कि यह परम्परा कब शुरू हुई । इसी प्रकार कर्मों से शरीर पैदा होता है और शरीर से कम होते हैं। इन दोनों की परम्परा अनादि है। किसी खास कर्म या शरीर के लिए यह कहा जा सकता है कि वह आदि वाला है किन्तु उनकी परम्परा के लिए नहीं कहा जा सकता । इस लिए पहले कर्म हुए या जीव इत्यादि प्रश्न ही नहीं उत्पन्न हो सकते । ऐसा कोई कर्म नहीं है जो उससे पहले होने वाले शरीर का कार्य न हो और ऐसा कोई शरीर नहीं है जो अपने
पहले होने वाले कर्म का कार्य न हो। कर्मों का होना ही वन्ध है, इसलिए वन्ध भी प्रवाह से अनादि है। देह और कर्म दोनों का कर्ता जीव है । देह को बनाते समय कर्म करण हैं और कर्मों को बनाते समय शरीर । यद्यपि कर्मों का प्रत्यक्ष नहीं होता, किन्तु देहरूप कार्य से उनका अनुमान किया जा सकता है, अर्थात् उनकी सिद्धि की जा सकती है।
'कर्म और शरीर की सन्तान परम्परा को अनादि मानने से उसका कभी अन्त न होगा' यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि वीज और अंकुर की सन्तान परम्परा अनादि होने पर भी सान्त होती है । वीज अथवा अंकुर के विना कार्य किए नष्ट हो जाने पर वीज और अंकुर की परम्परा नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार मुर्गी और उसके अण्डे, पिता और पुत्र कीपरम्परा भी नष्ट हो सकती है।