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श्री जैन सिद्धान्त वोल सग्रह, चौथा भाग २०५ कराने वाली) उसका पालन पोषण कर रही थीं । धन्ना कुमार ने वहत्तर कला का ज्ञान प्राप्त किया ।जब धन्ना कुमार यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ तव भद्रा सार्थवाही ने उसका बचीस बड़े पड़े सेठों की ३२ कन्याओं के साथ एक ही दिन एक ही साथ विवाह किया।बत्तीस ही पुत्रवधुओं के लिए बड़े ऊंचे (सात मझले) महल बनवाये और धन्ना कुमार के लिए उन ३२ महलों के बीच में अनेक स्तम्मों वाला और बहुत ही सुन्दर एक महल बनवाया। धन्नाकुमार बहुत आनन्द पूर्वक समय बिताने लगा।
एक समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे । भगवान् का आगमन सुन कर धन्नाकुमार भगवान को वन्दना नमस्कार करने के लिए गया । भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर धन्नाकुमार की संसार से विरक्ति होगई । अपनी माता भद्रा सार्थवाही से आज्ञा प्राप्त कर भगवान् के पास दीक्षा अङ्गीकार की। निस दिन दीक्षा ली उसी दिन धना मुनि ने ऐसा अभिग्रह किया कि आज से मैं यावज्जीवन वेले वेले पारणा करूंगा । पारने में आयम्विल (रुक्ष आहार ) करूंगा। वह रूक्षाहार भी ऐसा हो जिसके घृतादि किसी प्रकार का लेप न लगा हो, घरवालों के खा लेने के पश्चात् वचा हुआ बाहर फैकने योग्य तथा वावा जोगी कृपण भिखारी आदि जिसकी वाञ्छा न करे ऐसे तुच्छ आहार की गवेपणा करता हुआ विचरूंगा । इस प्रकार कठोर अभिग्रह धारण कर महा दुष्कर तपस्या करते हुए धन्ना मुनि विचरने लगे। कभी आहार मिले तो पानी नहीं और पानी मिले तो आहार नहीं । जो कुछ आहार मिल जाता, धना मुनि चित्त की आकुलता व्याकुलता एवं उदासीनता रहित उसी में सन्तोष करते किन्तु
कभी भी मन में दीन भाव नहीं लाते । जिस प्रकार सर्प विल में • प्रवेश करते समय रगड़ लग जाने के डर से अपने शरीर का इधर