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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह चौथा भाग ३१६ के ऊपर कई करोड़, कई लाख, कई हजार, कई सौ योजन दूरी पर हैं। बारह देवलोकों के विमान ८४६६७०० हैं। सौधर्म से सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त सब देवलोकों के विमान ८४९७०२३ हैं। सभी विमान रत्नों के बने हुए, स्वच्छ, कोमल, स्निग्ध, घिसे हुए, साफ किए हुए रज रहित, निर्मल, निष्पंक, विना आवरण की दीप्ति वाले, प्रभा सहित, शोभासहित, उद्योतसहित, प्रसन्नता देने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। इनमें सौधर्म देव रहते हैं। सौधर्म देवलोक के देवताओं के मुकुट में मृग का चिह्न रहता है। ईशान में महिप (भैंसा)। सनत्कुमार में वराह (सुन्धर)। माहेन्द्र में सिंह । 'ब्रह्म देवलोक में चकरा | लान्तक में मेंढक । महाशुक्र में घोड़ा। सहस्रार में हाथी । आणत में भुजंग(सर्प) प्राणत में मेंढा | पारण में चैल । अच्युत में विडिम (एक प्रकार का मृग)। इस प्रकार के मुकुटों को धारण करने वाले, उत्तम कुण्डलों से जाज्वल्यमान मुख वाले, मुकुटों की शोभा को चारों तरफ फैलाने वाले, लाल प्रभा चाले. पन की तरह गौर, शुभवर्ण,शुभ गन्ध और शुभ स्पर्श वाले, उत्तम चैक्रिय शरीर वाले, श्रेष्ठ वस्त्र, गन्ध, माला और विलेपन को धारण करने वाले, महाऋद्ध वाले देव उन विमानों में रहते हैं।
(१) सौधर्म देवलोक-मेरु पर्वत के दक्षिण की ओर रनप्रभा के समतल भाग से असंख्यात योजन ऊपर अर्थात् शाराजू परिमाण क्षेत्र में सौधर्म नाम का देव नोक पाता है। वह पूर्व से पश्चिम लम्बा तथा उत्तर से दक्षिण चौड़ा है। अर्धचन्द्र की आकृति वाला है। किरणमाला अथवा कान्तिपुञ्ज के समान प्रभा वाला है । असंख्यात कोड़ाकोडी योजन लम्बा तथा विस्तृत है। उसकी परिधि असंख्यात योजन है। सारा रनमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। उन में सौधर्म देवों के ३२ लाख विमान हैं। वे विमान भी रत्नमय तथा स्वच्छ प्रभा वाले हैं। उन विमानों में पाँच अवतंसक अर्थात् मुख्य विमान