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३२० श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला हैं। पूर्व दिशा में अशोकावतंसक, दक्षिण में सप्तपर्णावतंसक, पश्चिम में चम्पकावतंसक और उत्तर में चूतावतंसक । सब के बीच में सौधर्मावतंसक है। वे सभी अवतंसक रत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। यहीं पर्याप्त तथा अपर्याप्त सौधर्म देवों के स्थान हैं। उपपात, समुद्घात
और स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्याता भाग में हैं। वहीं सौधर्म देव रहते हैं। वे महाऋद्धि वाले यावत् स्वच्छ प्रभा वाले हैं। सौधर्म दैवलोक का इन्द्र, वहाँ रहे हुए लाखों विमान, हजारों सामानिक, त्रायस्त्रिंश, सामान्य देव यावत् आत्मरक्षक देवों के अतिरिक्ष बहुत से वैमानिक देव तथा देवियों का स्वामी है। सौधर्म देवलोक का राजा शक है। वह हाथ में वज्र धारण किए रहता है। वही पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन और लोक के दक्षिणार्ध का स्वामी है । वह बत्तीस लाख विमानों का अधिपति, ऐरावण वाहन वाला, देवों का इन्द्र, आकाश के समान निर्मल वस्त्रों को धारण करने वाला, माला और मुकुट पहने हुए, नए सुवर्ण केसमान सुन्दर, अद्भुत और चञ्चल कुण्डलों से सुशोभित, महाऋद्धि से सम्पन्न, दसों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला, ३२ लाख विमान, चौरासी हजार सामानिक देव, तेतीस गुरुस्थानीय त्रायस्त्रिंश देव, चार लोकपाल, दास दासी आदि परिवार के साथ ।
आठ अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों (सेनाओं), सात अनीकाधिपतियों और तीन लाख छत्तीस हजार प्रात्मरक्षक देवों तथा बहुत से दूसरे वैमानिक देवों और देवियों का अधिपति है। । (२) ईशान देवलोक-रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल भूभाग से बहुत ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों से बहुत ऊपर जाने पर मेरु पर्वत के उत्तर में ईशानकल्प है । वह पूर्व से पश्चिम लम्बा और उत्तर से दक्षिण चौड़ा है, असंख्यात योजन विस्तीर्ण है, इत्यादि सारी बातें सौधर्म देवलोक सरीखी जाननी चाहिएं । इस में २८