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श्री जैन सिद्धान्त बोल सप्रह, चौथा भाग - ३२१ तक नानना चाहिए । सूक्ष्म क्षेत्र पन्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, आणत प्राणत, पारण और अच्युत देवलोक में उतने देव हैं।
अवगाहना-देवों की अवगाहना दो तरह की है- भवधार -पीया और उत्तर वैक्रिया । सौधर्म और ईशान देवलोक में भवधारणीया अवगाहनाजघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग, उत्कृष्ट सात रनियाँ (मुंड हाथ) हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र में छा, ब्रह्मलोक
और लान्तक में पॉच, महाशुक्र और सहस्रार में चार, प्राणत, प्राणत, आरण और अच्युत देवलोक में तीन । उत्तर वैक्रिया अव गाहना सभी देवलोकों में जघन्य अंगुल का संख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन है।
संहनन-हड्डियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं। देवों का शरीर क्रियक होने के कारण का संहननों में से उनके कोई संहनन नहीं होता । संसार में जो पुद्गल इट, कान्त, मनोज्ञ, प्रिय तथा श्रेष्ठ है, वे ही उनके संहनन या संघात रूप में परिणत होते हैं।
संस्थान- सौधर्म, ईशान आदि देवलोकों में भवधारणीय समचतुरस्त्र संस्थान होता है । उचर विक्रिया के कारण वहाँ संस्थान हो सकते हैं, क्योंकि वे अपनी इच्छानुसार रूप बना सकते हैं।
वर्ण-सौधर्म और ईशान कल्प में देवों के शरीर का वर्ण तपे हुए सोने के समान होता है। सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पलकेसर के समान गौर । उसके पश्चात् आगे के देवलोकों में उत्तरोतर अधिकाधिक शुक्ल वर्ण होता है।
स्पर्श- उनका स्पर्श स्थिर, मृदु और स्निग्ध होता है। उच्छवास-संसार में जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन को प्रीति करने वाले हैं वे ही उनके श्वासोच्छवास के रूप में परिणव होते हैं।