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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, चौथा भाग अन्त में छूट जाती हैं। इस लिए अनादि सान्त हैं। पाकी चारह प्रकृतियाँ तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान के अन्त में छूट जाती हैं। इस लिए ये भी अनादि सान्त हैं। पहले कही हुई ४७ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त रूप तीन भंग ही होते हैं, तीसरा सादि अनन्त भंग नहीं होता। जो वन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है, चीच में कभी विच्छिन्न नहीं हुआ, अनन्त काल तक सन्तान परम्परा से चलता रहेगा वह अनादि अनन्त है । यह भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से है। अनादि काल से चला पाने पर भी जो वन्ध विच्छिन हो जायगा वह अनादि सान्त है, यह मोक्षगामी भव्य जीवों की अपेक्षा से है । सादि अनन्त भंग पन्ध में नहीं होता, क्योंकि जिन प्रकृतियों का बन्ध सादि है उनका अन्त अवश्य होता है । जो प्रकृतियाँ एक या अधिक चार अलग होकर फिर आत्मा से वन्धती हैं उनका अन्त अवश्य होता है। ऐसी प्रकृतियाँ सादि सान्त कही जाती हैं। इस प्रकार ध्र ववन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे सांदि अनन्त भंग को छोड़ कर शेष तीन भंग होते हैं।।
घ्र वन्धिनी प्रकृतियों में पहला भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से है। दूसराभंग भव्य के ज्ञानावरणीय, ४ दर्शनावरणीय और ५ अन्तराय,इन चौदह प्रकृतियों की अपेक्षा से है। इन प्रकृतियों का बन्ध अनादिपरम्परा से होने पर भी दसर्वे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान के चरम समय में छूट जाता है। उपशम श्रेणी वाले जीव की अपेक्षा से वे ही . चौदह प्रकृतियाँ सादि सान्त हो जाती हैं अर्थात् उपशम श्रेणी करते हुए जी के दसवें गुणस्थान में उपरोक १४ प्रकृतियों का वन्ध छट जाता है, वहाँ से गिर जाने पर फिर होने लगता है। इस लिए उनकी अपेक्षा यह बन्ध सादि है । क्षपक श्रेणी से सदा के लिए नाश हो जाने से वह वन्ध सान्त है। इस प्रकार सादि सान्त