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भी जैन सिद्धान्त बोन साह चौथा भाग २९७ ७६७-ग्लानप्रतिचारी बारह
बीमारी या तपस्था आदि के कारण अशक्त साधु को ग्लान कहते हैं । ग्लान साधु की सेवा के लिए नियत साधु को ग्लान प्रतिचारी कहते हैं । ढीला, पासत्था, संयम में दोष लगाने वाला या भगीतार्थ साधु सेवा के लिए ठीक नहीं है । जो साधु गीतार्थ आदि गुणों वाला तथा संयम में दृढ़ है, वैयावन के लिए हर तरह से उद्यत है वही इसके लिए योग्य है। ग्लानप्रतिचारी के बारह मेद हैं
(१' उद्वर्ष प्रतिचारी-ग्लान साधु का पसवाड़ा भादि बदलने वाले । सामान्य रूप से अनशन आदि अङ्गीकार किए हुए साधु को उद्वर्तन (पसवाड़ा लेना) आदि स्वयं ही करना चाहिए। जो अशक्ति के कारण शरीर को न हिला डुला सके उसका चार साधु पसवाड़ा शादि बदल देते हैं। सीधा या उल्टा उसकी इच्छानुसार लेटा देते हैं । उठाना, बैठाना, बाहर ले जाना, भीतर लाना, वन पात्रादि उपधि की पडिलेहणा करना आदि सभी प्रकार से उसकी सेवा करते हैं। .
(२) द्वारप्रतिचारी-जिस कमरे में ग्लान साधु लेट रहा हो उसके द्वार पर बैठने वाले साधु द्वारप्रतिचारी कहे जाते हैं। ये साधु ग्लान के पास से भीड़ हटाने के लिए बैठे रहते हैं क्योंकि , भीड़ से ग्लान को असमाधि उत्पन्न होती है।
(३) स्तार प्रतिधारी -लान या तपस्खी के लिए साताकारी शय्या विछाने वाले साधु संस्कार प्रविचारी कहलाते हैं।
(४) कथक विचारी-उपदेश देने अथवा धर्म कथा करने की विशेष लब्धि वाले साधु जोग्लान साधु को धर्म कथा सुनाते हैं तथा उसे संयम में दृढ करते हैं।
(५) वादि प्रतिचारी-बाद शक्ति वाले साधु जो भावरणकता पड़ने पर प्रतिवादी को जीत ले तथा खान साधु को धर्म से