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श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, चौथा भाग
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स्थान पर राजगृह और राजगृह के स्थान पर वाणारसी (वनारस) का भ्रम होना, सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुणा, सव स्थानों में याथातथ्यमाव से देखना, चमरेन्द्र के आत्मरक्षक देवों का वर्णन।
(७)उ०- शक्रन्द्र के लोकपालों का विचार और विमानों का विचार ।
(2)उ०-अमुरकुमार आदि दस भवनपतियों के नाम, उनके अधिपति देवों के नाम, पिशाच, ज्योतिषी और वाणव्यन्तर दवा के अधिपतियों के नाम और उन पर विचार ।
(8)उ०-पांच इन्द्रियों के कितने विषय है ? उत्तर के लिए श्री जीवाभिगम सूत्र की भलामण ।
(१०)उ००-चपरेन्द्र की सभा से लेकर अच्युतेन्द्र की सभा - तक का विचार।
चौथा शतक (१८)उ०-दस उद्देशों के नाम की गाथा। पहले से चोथे उद्देशे तक ईशानेन्द्र के लोकपाल और विमानों का प्रश्नोत्तर। पॉचत्रे से आठवें उद्देशे तक लोकपालों की राजधानियों का वर्णन ।
(8)उ०-- नरक में नैरयिक उत्पन्न होते हैं या अनैरयिक, इत्यादि विचार।
(१०) उ०--कृष्ण लेश्या, नील लेश्या श्रादि को प्राप्त कर जीव क्या तद्वर्णरूप से परिणत होता है ? उचर के लिए पन्नवणा के लेश्यापद की भलामण।
पाँचवॉ शतक (१)उ०-दस उद्देशों के नाम की गाथा. सर्य की गति विषयक प्रश्न, सूर्य की उत्तरार्द्ध एवं दक्षिणार्द्ध में गति आदि का विचार ।
(२)उ०-पुरोवात, पश्चाद्वात, मंदवात, महावात श्रादि वायु सम्बन्धी विचार, वायुकुमारों द्वारा वायु की उदीरणा, वायु मर